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द्वार ६३
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इनका योग न मिले तो वट, अश्वत्थ, अशोकादि के वृक्ष के नीचे जाकर गच्छ के बाल-वृद्ध सभी साधुओं से, विशेषत: विरोधी साधुओं से क्षमा-याचना करे बृहत्कल्प भाष्य में कहा है कि “प्रमादवश आप लोगों के साथ जो कटु-व्यवहार किया हो तो मैं शल्य व कषाय से रहित होकर आपको क्षमाता हूँ।” तत्पश्चात् भूमि पर मस्तक लगाकर शिष्य व गच्छवर्ती साधु भी हर्ष के आँसू बहाते हुए पर्याय के क्रम से उनसे क्षमायाचना करें।
__ जिनकल्प स्वीकारने वाले यदि आचार्य हैं तो अपने स्थान पर प्रतिष्ठित आचार्य को उद्बोधित करे- “आप गण का कुशलतापूर्वक निर्वाह करते हुए, अनासक्त भाव से विचरण करना। कृतकृत्य बनकर मेरी तरह आप भी अन्त में जिनकल्प का स्वीकार करना। सदैव अप्रमत्त रहना। मुनियों की रुचि व योग्यता के अनुरूप उन्हें संयम योगों में संलग्न करना।"
तत्पश्चात् गच्छ को उद्बोधित करे-“आचार्य छोटे हैं या बड़े, बहुश्रुत हैं या अल्पश्रुत हैं, आपके लिये पूज्य हैं। उनके अनुशासन में रहना ।” फिर गच्छ का त्यागकर, जिनकल्प को स्वीकार करे । जाते हए जिनकल्पी जब तक आँखों से ओझल न हो जायें तब तक सभी साधु उन्हें देखते हुए खड़े रहे, जब दीखना बन्द हो जाये तब हर्षित मन से उपाश्रय में लौट आयें।
___जिनकल्पी मुनि जिस गाँव में मास-कल्प या चातुर्मास करे, उस गाँव को छ: भागों में विभक्त कर एक दिन में एक भाग से गौचरी ग्रहण करे।
__ आहार और विहार दोनों तीसरे प्रहर में करे । चौथा प्रहर लगते ही जहाँ पहुँचे हों, वहाँ ठहर जाये।
आहार और पानी, अभिग्रहपूर्वक अलेपकारी ही ग्रहण करे । गवेषणा विषयक पूछताछ के सिवाय सर्वथा मौन रखे। उपसर्ग और परीषह अक्षुब्ध मन से सहन करे । रोग की चिकित्सा न स्वयं करे, न. अन्य से करावे। समभाव से वेदना सहन करे तथा एकाकी विचरण करे।
अनापात, असंलोक आदि दश गुणों से युक्त स्थंडिल में उच्चार, प्रस्रवण आदि करे । जीर्ण वस्त्र भी ऐसे ही स्थंडिल में परठे। प्रमार्जना, परिकर्म आदि से रहित वसति में उतरना पड़े तो निश्चित उत्कटुक आसन से ही बैठे, क्योंकि उनके पास बैठने के लिए आसन नहीं होता और बिना आसन के साधु को जमीन पर बैठना नहीं कल्पता। विहार करते समय रास्ते में सामने से सिंह आदि हिंसक प्राणी
आ रहे हों तो भी मार्ग छोड़कर उन्मार्ग में गमन नहीं करे, क्योंकि उन्मार्ग में जाने से जीव-विराधना होती है।
जिनकल्प स्वीकार करने वाले को जघन्य से नौंवे पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक का ज्ञान .. अवश्य होना चाहिये, अन्यथा कालादि का ज्ञान नहीं कर सकता। उत्कृष्ट से सम्पूर्ण दश-पूर्व का ज्ञान होना चाहिये । प्रथम संघयणी वज्रवत् अभेद्य शरीर वाला होना चाहिये। जिनकल्पी को नित्य लोच करना आवश्यक है।
जिनकल्पी के आवस्सहि, निस्सीहि, मिच्छाकार, गृहविषयक पृच्छा और उपसम्पद् ये पाँच समाचारी होती है। अन्य मतानुसार जिनकल्पी के आवस्सहि, निस्सीहि और उपसंपद् ये तीन समाचारी होती है,
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