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प्रवचन-सारोद्धार
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बल न हो तो किसी विशिष्ट ज्ञानी आचार्य को पूछे । यदि अल्प आयु हो तो इंगिनी मरण, भक्त-परिज्ञा आदि स्वीकार कर देह का त्याग करे। आयु दीर्घ हो किंतु जंघाबल क्षीण हो तो स्थिरवास स्वीकार करे । यदि शरीर सशक्त हो तो जिनकल्प स्वीकारे । आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक प्राय: ये पाँच ही जिनकल्प स्वीकारते हैं।
जिनकल्प स्वीकारने से पहले पाँच प्रकार की तुलना से अपनी आत्मा को तोले । तुलना, भावना, परिकर्म एकार्थक है। तप, सत्त्व आदि पाँच भावनाओं से आत्मा को भावित करें तथा अप्रशस्त कंदर्प आदि दुर्भावनाओं का त्याग करे। १. तप
- तप द्वारा आत्मा को इस प्रकार भावित करे कि देव आदि के
उपसर्ग के समय छ: मास पर्यन्त कल्पनीय आहार न मिले तो
भी क्षुब्ध न बने। २. सत्त्व
भय और निद्रा को पराजित करे। इसके लिए जब सभी सो जायें तब स्वयं (१) उपाश्रय में कायोत्सर्ग करे, (२) उपाश्रय से बाहर खड़े होकर कायोत्सर्ग करे, (३) चौराहे पर जाकर कायोत्सर्ग करे, (४) शून्य घर में कायोत्सर्ग करे, (५) श्मशान में जाकर
कायोत्सर्ग करे । इस प्रकार पाँच तरह से अपने सत्त्व को तोले । ३. सूत्रभावना
- सूत्र और अर्थ का इस तरह अभ्यास करे कि दिन या रात को
जब अपने शरीर की छाया न पड़ती हो तो भी सूत्र के परावर्तन
से ज्ञात कर ले कि इतना समय हुआ है। ४. एकत्वभावना
- समुदाय के साधुओं के साथ विचार-विमर्श, सूत्र-अर्थ, सुख-दुःख
आदि की पृच्छा, परस्पर-कथा, वार्ता आदि का त्याग करे। इससे बाह्य-ममत्व का नाश होता है। पश्चात् धीरे-धीरे देह उपधि
आदि की आसक्ति भी छूट जाती है। ५. बलभावना
- दो प्रकार की है(i) शरीरबल - जिनकल्प स्वीकार करने वाला व्यक्ति विशिष्ट बली होना चाहिये । (ii) धृति-बल - जिनकल्प स्वीकार करने वाले का धृति-बल इतना दृढ़ होना
चाहिये कि घोर उपसर्ग व परीषह के समय भी क्षब्ध न बने। __ पूर्वोक्त पाँच भावनाओं से भावित आत्मा गच्छ में रहकर पहले उपधि और आहार विषयक परिकर्म करे । एषणा के अंतिम पाँच प्रकार में से दो का अभिग्रह धारण कर एक से अंत, प्रांत आहार ग्रहण करे तथा दूसरी से पानी ग्रहण करे । आहार-पानी तृतीय प्रहर में ही ग्रहण करे । पाणिपात्र लब्धि हो तो हाथ में ग्रहण करे अन्यथा पात्र में ग्रहण करे ।
इस प्रकार परिकर्म करने के पश्चात् सम्पूर्ण संघ को एकत्रित करे। यदि ऐसा करना संभव न हो तो अपने गण को एकत्रित करे । तत्पश्चात् क्रमश: तीर्थंकर, गणधर, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी की निश्रा में,
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