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द्वार ६१-६२
(ii) उपधि - जघन्य-मुहपत्ति और रजोहरण = २
उत्कृष्ट-मुहपत्ति, रजोहरण और पात्र नियोग = १+१+७=९ (iii) श्रुत
- इनका श्रुतज्ञान निश्चित रूप से पूर्व-भव-पठित ही होता है ।
जघन्य से ११ अंग व उत्कृष्ट से देशोन १० पूर्व की श्रुत संपदा
होती है। (iv) लिंग
- प्रत्येक-बुद्धों को रजोहरणादि लिंग निश्चित रूप से देवता ही
देते हैं। कभी-कभी ये लिंगरहित भी होते हैं। निश्चित रूप से
ये गच्छ से बाहर रहकर एकाकी विहार करते हैं। • यद्यपि तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं, किन्तु उनका जीवन अलग है, क्योंकि वे जन्म से बोधि-युक्त
तीन ज्ञान के स्वामी होते हैं। वे लिंगरहित मात्र इन्द्र द्वारा प्रदत्त एक देवदूष्य को धारण करते हैं, उनका कोई गुरु नहीं होता। वे स्वयं तीर्थ की प्रवर्तना करते हैं ।। ५२४-५२७ ॥
६२ द्वार : |
साध्वी-उपकरण
उवगरणाई चउद्दस अचोलपट्टाई कमढयजुआई। अज्जाणवि भणियाई अहियाणिवि हुंति ताणेवं ॥५२८ ॥ उग्गहऽणंतग पट्टो अड्डोरुय चलणिया य बोद्धव्वा । अभितर बाहिनियंसणी य तह कंचुए चेव ॥५२९ ॥ उक्कच्छिय वेगच्छिय संघाडी चेव खंधगरणी य । ओहोवहिंमि एए अज्जाणं पन्नवीसं तु ॥५३० ॥ अह उग्गहणंतगं नावसंठियं गुज्झदेसरक्खट्ठा। तं तु पमाणेणेक्कं घणमसिणं देहमासज्ज ॥५३१ ॥ पट्टोऽवि होइ एगो देहपमाणेण सो उ भइयव्वो। छायंतोग्गहणंतं कडिबद्धो मल्लकच्छा व ॥५३२ ॥ अद्धोरुगोवि ते दोवि गिहिउं छायए कडीभागं । जाणुपमाणा चलणी असीविया लंखियाए व ॥५३३ ॥ अंतोनियंसणी पुण लीणतरी जाव अद्धजंघाओ। बाहिरगा जा खलुगा कडीइ दोरेण पडिबद्धा ॥५३४ ॥
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