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द्वार ६१
केवल वैयावच्च करने वाले ही रखें अन्यथा सभी साधु रखें और आचार्य आदि के योग्य वस्तु जहाँ भी मिल जाय, सभी ग्रहण करें। जिस देश में आहार अतिशीघ्र, संसक्त बन जाने की संभावना हो, उस देश में पहिले जो भी भिक्षा मिले, मात्रक में ग्रहण करें । पश्चात् आचार्य आदि के योग्य द्रव्य मिलने पर मात्रक में गृहीत द्रव्य का शोधन कर अन्य पात्र में डालें और दुर्लभ व सहसा प्राप्त द्रव्य को मात्रक में ग्रहण करें। चोल = पुरुष चिह्न। पट्ट = प्रावरण वस्त्र, अर्थात् पुरुष चिह्न को ढांकने वाला वस्त्र। इसका प्रमाण, दो तह या चार तह करने पर लम्बाई, चौड़ाई में एक हाथ होना चाहिये। चोलपट्ट अवस्था के भेद से दो प्रकार का होता है- (i) स्थविर और (ii)
१४. चोलपट्टा
युवा।
(i) स्थविर
(ii) युवा
प्रयोजन
- स्थविर अवस्था में इन्द्रियाँ क्षीण हो जाने से दो हाथ प्रमाण
चोलपट्टा पर्याप्त है। वस्त्र कोमल होना चाहिये। -- युवावस्था के कारण इन्द्रियाँ प्रबल होने से चोलपट्टा चार हाथ
लम्बा गाढा होना चाहिये। - विकृत लिंग (जैसे दक्षिणवासियों का लिंग आगे से बींधा हुआ होता है), चमड़ी से अनाच्छादित लिंग, वायु के प्रकोप से सूजनयुक्त लिंग को ढंकने के लिये चोलपट्टा पहिनना आवश्यक ' है। स्वभावत: किसी साधु का लिंग असहज हो तो उसे देखकर लोग उपहास, निन्दा आदि न करें इसलिये चोलपट्टे की आवश्यकता है। स्वभाव से लज्जालु मुनि के लिये, स्त्री को देख कर मुनि को या नग्न-मुनि को देखकर स्त्री को वेदोदय न हो इसलिये तीर्थकर परमात्मा ने मुनि को चोलपट्टा धारण करने की अनुज्ञा दी है।
यह चौदह प्रकार की ओघ उपधि समझना । - कारणवश संयम की साधना में जो उपयोगी बनती है वह
औपग्रहिक उपधि है। - दोनों ही ढाई हाथ लम्बे और एक हाथ चार अंगुल चौड़े होने
चाहिये। संस्तारक ऊनी और उत्तरपट्टा सूती। पहिले संथारा बिछाना फिर उस पर सूती उत्तरपट्टा बिछाना। केवल भूमि पर सोने से पृथ्वी आदि जीवों का शरीर के साथ
औपग्रहिक उपाधि
१-२ संस्तारक और
उत्तरपट्टा
प्रयोजन
- का
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