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________________ २२८ द्वार ६१ साधु कितने उपकरण रख सकता है और कितने प्रमाण में रख सकता है? इस प्रकार उपकरणों का गणना-प्रमाण और माप इस द्वार में बताये जायेंगे। १ मुहपत्ति, १ रजोहरण, ३ ओढ़ने के वस्त्र (दो सूती व एक ऊनी) ७ पात्र निर्योग, १ मात्रक तथा १ चोलपट्टक = १४ प्रकार की उपधि स्थविर-कल्पी के होती है ॥ ४९९ ॥ १. मुहपत्ति एक बेंत और चार अंगुल लम्बी-चौड़ी (प्रमाण से)। अन्यमतानुसार-मुहपत्ति इतनी लंबी-चौड़ी होनी चाहिए कि वसति प्रमार्जन करते समय या बाहर जाते समय, उसे तिकोन करके (रजकण से बचाव के लिए) नाक-मुँह बाँधे जा सकें (रजकण नाक में घुसने से अर्श-रोग होने की संभावना रहती है ।) . प्रयोजन - वसति-प्रमार्जन करते समय रज-कण नाक में प्रवेश न करें तथा बोलते समय संपातिम मक्खी, मच्छर आदि मुख में प्रवेश न करें तथा सचित्त रजादि की रक्षा के लिए मुहपत्ति रखना आवश्यक २. रजोहरण चौबीस अंगुल प्रमाण डंडी एवं आठ अंगुल प्रमाण दशिका, कुल मिलाकर बत्तीस अंगुल प्रमाण रजोहरण होता है । अथवा डंडी ' या दशिका प्रमाण में न्यूनाधिक भी हो सकती है, किंतु रजोहरण का प्रमाण बत्तीस अंगुल निश्चित है। अब रजोहरण के विषय में आधुनिक शिथिलाचारी मुनियों के द्वारा प्रस्तुत आक्षेप व उसका समाधान देते हुए टीकाकार महर्षि कहते हैं। रजोहरण मध्यभाग में डोरे के तीन आंटो से युक्त होना चाहिये। क्योंकि, आगम में ऐसा ही पाठ है-'मज्झे तिपासिअं कुज्जा।' जो मुनि रजोहरण में नीचे डोरा बाँधते हैं वे भगवान की आज्ञा के विरोधी होने से मिथ्यादृष्टि हैं। उनके प्रति गीतार्थों का कथन है कि रजोहरण के नीचे डोरा बाँधने वाले मुनि मिथ्यादृष्टि नहीं होते, क्योंकि यह प्रवृत्ति गीतार्थों के द्वारा आचरित व स्वीकृत है। अशठ गीतार्थों के द्वारा आचरित प्रवृत्ति करने में भगवान की आज्ञा का लेशमात्र भी भंग नहीं होता। गणधर भगवन्तों ने भी कहा है कि 'राग-द्वेष रहित अशठ गीतार्थों के द्वारा द्रव्य-काल-भाव के अनुसार जो कुछ निर्दोष आचरण किया गया हो और जिसका तत्कालीन गीतार्थों के द्वारा विरोध न किया गया हो तो वह आचरण लाभप्रद होने से योग्य है।' अत: रजोहरण में नीचे डोरा बाँधने की प्रवृत्ति गीतार्थों द्वारा आचरित होने से उसका विरोध करने वाले आप मिथ्यात्वी सिद्ध होंगे। तथा अपने आपको सिद्धान्तानुसारी मानने वाले आपसे प्रश्न है कि क्या आप सिद्धान्त की अपेक्षा लेशमात्र भी अधिक नहीं करते? और बात तो दर रही। वस्तुत: आपका रजोहरण भी सिद्धान्तानुसार नहीं है, क्योंकि रजोहरण का स्वरूप सिद्धान्त में इस प्रकार बताया गया है। 'रजोहरण मूल में ठोस, मध्य में स्थिर व दशी के भाग में कोमल होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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