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________________ प्रवचन - सारोद्धार २२७ वस्तु या स्थान की प्रमार्जना करने के लिये रजोहरण उपयोगी है तथा भागवती दीक्षा का चिह्न होने से आवश्यक है ।।५१४ ।। संपातिम जीवों की रक्षा के लिये तथा सचित्त रज की प्रमार्जना के लिये मुहपत्ति आवश्यक है। वसति-प्रमार्जन करते समय साधु मुहपत्ति से नाक एवं मुख बाँधते हैं ।।५१५ ।। छः काय के जीवों की रक्षा के लिये पात्र रखने की जिनाज्ञा है। एक मंडली में भोजन करने जो गुण हैं वे गुण पात्र रखने में भी हैं अर्थात् पात्र रखने से ही अन्य मुनियों के लिये गोचरी आदि लाई जा सकती है ।।५१६ ॥ तृणग्रहण और आग के उपयोग से बचने के लिये, धर्म- शुक्लध्यान में स्थिर रहने के लिये, रोगी की समाधि के लिये तथा मृतक को ढंकने के लिये वस्त्र ग्रहण आवश्यक है ।। ५१७ ।। विकृत, वायुग्रस्त एवं दीर्घलिंग को ढंकने के लिये तथा वेदोदय की स्थिति में लाज बचाने के लिए चोलपट्टे का उपयोग करने की जिनाज्ञा है ।। ५१८ ।। जिनकल्पी और स्थविरकल्पी मुनियों से अतिरिक्त भी दो प्रकार के मुनि है - १. स्वयंबुद्ध और २. प्रत्येकबुद्ध । स्वयंबुद्ध के भी दो भेद हैं- १. तीर्थंकर और २. तीर्थंकरभिन्न (सामान्य) ॥ ४१९ ॥ तीर्थंकर भिन्न स्वयंबुद्ध, प्रत्येकबुद्धों की अपेक्षा बोधि, उपधि, ज्ञान और लिंग से अलग होते हैं। स्वयंबुद्ध को बोधि ( धर्म की प्राप्ति), जातिस्मरण आदि आन्तरिक भावों से होती है । उनके बारह प्रकार की उपधि होती है - १. मुहपत्ति २. रजोहरण ३-४-५ कल्पत्रिक और ६-१२ सात प्रकार का पात्रनिर्योग। स्वयंबुद्ध को श्रुतज्ञान पूर्वजन्म सम्बन्धी तथा इस जन्म सम्बन्धी दोनों ही होते हैं । पूर्वाधीन श्रुतवाले स्वयंसंबुद्धों को वेषार्पण देव करते हैं या वे स्वयं गुरु के पास जा कर वेष ग्रहण करते हैं। पर, जिन्हें पूर्वाधीत श्रुतज्ञान नहीं होता उन्हें तो वेष गुरु ही देते हैं । स्वयंबुद्ध मुनि यदि एकाकी विहार करने में समर्थ हैं और उनकी इच्छा भी ऐसी है तो वे एकाकी विचरण कर सकते हैं। यदि एकाकी विचरण करने में असमर्थ हैं और ऐसी इच्छा भी नहीं है तो गच्छ में रह सकते हैं ।। ५२०-५२३ ॥ प्रत्येकबुद्धों को धर्म की प्राप्ति बैल आदि निमित्तों को देखकर होती है। उनकी जघन्य उपधि मुहपत्ति एवं रजोहरण है तथा उत्कृष्ट उपधि मुहपत्ति, रजोहरण और सप्तविध पात्रनिर्योग है। उनका श्रुतज्ञान पूर्वभव सम्बन्धी ही होता है। वह जघन्य से ग्यारह अंग का तथा उत्कृष्ट से किंचित् न्यून दशपूर्व का होता है । इनको वेषार्पण देव द्वारा ही होता है। कदाचित् ये लिंगरहित भी होते हैं । प्रत्येकबुद्ध एकाकी ही विचरण करते हैं । गच्छ में नहीं जाते हैं ।। ५२४-५२७ ।। -विवेचन उपकरण = संयम में उपयोगी वस्त्र, पात्र आदि उपधि । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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