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________________ २१८ द्वार ५५-५८ योजन पहोली है। तत्पश्चात् चारों दिशा-विदिशा में एक-एक प्रदेश पहोलाई में कम होते-होते अंत में मक्खी की पाँख से भी अधिक पतली रह गई है। अन्त में उसकी पहोलाई अंगुल के असंख्यात भाग जितनी है। सिद्धशिला स्वरूप से श्वेतसुवर्णमयी, स्फटिकवत् निर्मल, ऊर्ध्वमुख छत्राकार, घी से भरे हुए कटोरे की तरह है। उसका आकार है . .कुछ आचार्यों का मत है कि सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर लोकान्त है। • “सिद्धशिला” से १ योजन ऊपर लोकान्त है, ऊपर के एक योजन के अन्तिम कोस के ६ठे भाग में सिद्धात्मा विराजमान होते हैं। क्योंकि उसके आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव है। शरीर का त्याग करके समयान्तर व प्रदेशान्तर को छुए बिना सिद्धात्मा यहाँ से जाकर सिद्धशिला पर विराजमान हो जाते हैं। १ कोस में २००० धनुष होते हैं। कोस का ६ठा भाग अर्थात् ३३३-२ धनुष होता है। सिद्धात्मा की अवस्थिति इतने ही देश में होती है। क्योंकि उनकी उत्कृष्ट अवगाहना भी इतनी ही है। सिद्ध परमात्मा अलोक को छूते हुए विराजमान रहते हैं। अलोक के कारण आगे नहीं जा सकते। स्खलित हो जाते हैं। यहाँ स्खलना का अर्थ है स्पर्श करते हुए रहना, नहीं कि पतन होना। जिन वस्तुओं का संबंध होता है, उन्हीं वस्तुओं का पतन होता है। सिद्धात्मा संबंधरहित होते हैं अत: उनका पतन भी नहीं हो सकता। ऐसे सिद्ध परमात्मा, अपुनरागमन स्वभाव वाले पंचास्तिकाय रूप लोक के अग्रभाग पर बिराजते हैं ॥ ४८५-४८६ ॥ ५६-५८ द्वारः अवगाहना तिण्णि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो। एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया ॥४८७ ॥ -गाथार्थसिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना–३३३ धनुष और एक धनुष का ? भाग परिमाण सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है।४८७ ॥ -विवेचन• सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३-२ धनुष की है। जैसे, सिद्धिगमनयोग्य जीव की उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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