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द्वार ५३-५४
२. ३.
प्रत्येक विजय में एक समय में २० सिद्ध होते हैं। कर्मभूमि, अकर्मभूमि, कूट, पर्वत पर एक समय में १०...१० सिद्ध होते हैं। (संहरण की अपेक्षा
४. संहरण की अपेक्षा से पंडकवन में एक समय में २ सिद्ध होते हैं।
१५ कर्मभूमि में से प्रत्येक में एक समय में १०८ सिद्ध होते हैं । काल की अपेक्षा से सिद्ध
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के तीसरे व चौथे आरे में १०८ सिद्ध होते हैं। अवसर्पिणी के पाँचवें आरे में २० सिद्ध होते हैं। उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी के शेष आरों में १०-१० सिद्ध होते हैं। यह संहरण की अपेक्षा से समझना चाहिये। उत्सर्पिणी के पाँचवे आरे में तीर्थ का अभाव होने से कोई भी सिद्ध नहीं होता ॥ ४७९-४८१ ।।
५४ द्वार:
संस्थान
दीहं वा ह्रस्सं वा जं संठाणं तु आसि पुव्वभवे । तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥४८२ ॥ जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि । आसीय पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥४८३ ॥ उत्ताणओ य पासिल्लओ य ठियओ निसन्नओ चेव । जो जह करेइ कालं सो तह उववज्जए सिद्धो ॥४८४ ॥
- -गाथार्थसिद्धों का संस्थान–दीर्घ अथवा हस्व जैसा संस्थान चरमभव में होता है उसकी अपेक्षा - भाग न्यून संस्थान सिद्धावस्था में होता है ।।४८२ ।।
मनुष्यभव में जितना संस्थान होता है वह अन्तिम समय में काययोग का त्याग करते हुए, आत्मप्रदेशों का 'घन' हो जाने से मूल अवगाहना की अपेक्षा त्रिभागन्यून हो जाता है। बस लोकाग्र पर स्थित सिद्धों का यही संस्थान (आकार) होता है ॥४८३ ।।
__ आगे पीछे झुके हुए, सोते-सोते, खड़े-खड़े अथवा बैठे-बैठे, जो जीव जिस स्थिति में निर्वाण प्राप्त करता है सिद्धावस्था में वह उसी स्थिति में उत्पन्न होता है ।।४८४ ॥
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