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२०८
५. तिर्यग्लोक में
सिद्धप्राभृत के मतानुसार१. जल में
२. ऊर्ध्व लोक में
३. समुद्र में
४. अधोलोक में
५. तिर्यग्लोक में
१०८
४८. द्वार :
४
४
२
२० पृथक्त्व
१०८
" चत्तारि उड्डलोए जले चउक्कं दुवे समुद्दमि ।
अट्ठसयं तिरिलोए, वीसपुहुत्तं अहोलोए ।। "
सिद्धप्राभृत की टीका में “ वीसपुहुत्तं" का अर्थ दो बीस अर्थात् चालीस किया है क्योंकि पृथक्त्व का अर्थ दो से नौ है, यहाँ दो ही लिये हैं अतः यहाँ अधो- लोक में सिद्ध संख्या ४० है ।
सिद्धप्राभृत के अनुसार अधोलोक में यदि सिद्ध संख्या ४० ही है तब तो यहाँ " वीसपुहुत्तं” के स्थान पर "दोवीसमहोलोए" यही पाठ देना उपयुक्त होगा ।। ४७२ ॥
एक समय में सिद्ध
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द्वार ४७-४८
एक्को व दो व तिन्नि व अट्ठसयं जाव एक्कसमयम्मि | मईए सिज्झइ संखाउयवीयरागा उ ॥ ४७२ ॥
-गाथार्थ
एक समय में सिद्ध होने वालों की संख्या - मनुष्य गति में संख्यातावर्ष की आयु वाले वीतराग भगवन्त एक समय में एक... दो... तीन यावत् एक सौ आठ सिद्ध होते हैं ॥ ४७२ ।।
-विवेचन
वीतराग अवस्था को प्राप्त करने वाले जीव एक समय में जघन्यतः १.... २......३...... उत्कृष्टतः १०८ व मध्यमतः ३ से १०७ सिद्ध होते हैं 1
संख्यातावर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य ही सिद्ध होते हैं । असंख्याता वर्ष की आयुष्यवाले मनुष्य या अन्यगति के जीव सिद्ध नहीं होते ॥ ४७२ ॥
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