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द्वार ४१
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निद्दा सोय अलीयवयण चोरिया मच्छर भया य ॥४५१॥ पाणिवह पेम कीलापसंग हासा य जस्स इय दोसा। अट्ठारसवि पणट्ठा नमामि देवाहिदेवं तं ॥४५२ ॥
-गाथार्थअठारह दोष-अज्ञान, क्रोध, मद, मान, लोभ, माया, रति, अरति, निन्दा, शोक, असत्यभाषण, चोरी, मात्सर्य, भय, हिंसा, प्रेम, क्रीडा, हास्य- जिनके ये अठ्ठारह दोष नष्ट हो चुके हैं ऐसे देवाधिदेव को मैं नमस्कार करता हूँ॥४५१-४५२ ॥
-विवेचन१. अज्ञान
संशय-विपर्यय और अनध्यवसाय रूप २. क्रोध
रोष ३. मद
जाति आदि आठ प्रकार का अभिमान मान
आग्रही बनना अथवा किसी के उचित कथन को नहीं मानन ५. लोभ
लालसा ६. माया
दंभ ७. रति
इष्ट-प्रीति ८. अरति
अनिष्ट संयोगजन्य दुःख ९. निद्रा १०. शोक
चित्त उद्वेग ११. अलीक वचन
असत्य भाषण १२. चोरी
चुराना १३. मत्सर
दूसरों के उत्कर्ष को नहीं सहना १४. भय
डर १५. हिंसा
जीव वध १६. प्रेम
विशेष स्नेह १७. क्रीड़ा
कुतूहल, खेल-कूद १८. हास्य
हँसी-मजाक __ पूर्वोक्त अठारह दूषणों से रहित जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ।
संशय = वस्तु के विषय में सन्देह, विपर्यय = वस्तु का विपरीत ज्ञान, अनध्यवसाय = विषय का अस्पष्ट ज्ञान ॥ ४५१-४५२ ।।
नींद
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