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प्रवचन - सारोद्धार
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परमात्मा जहाँ ठहरते हैं, वहाँ विचित्र पत्र, पुष्प, छत्र, ध्वज, घंटा पताकादि से परिवृत अशोक वृक्ष स्वतः प्रकट हो जाता है ।
३४.
समवसरण में सिंहासन पर पूर्वाभिमुख परमात्मा स्वयं बिराजते हैं, शेष तीन दिशाओं में परमात्मा के तुल्य देवकृत जिनबिम्ब होते हैं, किंतु तीर्थकर के प्रभाव से ऐसा लगता है मानो साक्षात् परमात्मा ही धर्मोपदेश दे रहे हों ।
पाँच इन्द्रियों के विषय सदा अनुकूल मिलते हैं ।
जहाँ-जहाँ भगवान् विचरण करते हैं वहाँ-वहाँ धूलि का शमन करने के लिए गंधोदक की वृष्टि होती
वसन्त आदि छ: ही ऋतुयें शरीर के अनुकूल होती है तथा प्रत्येक ऋतु में विकसित होने वाले फूलों की समृद्धि से मनोहर होती है ।
पाँच वर्ण के फूलों की वृष्टि होती है ।
पक्षीगण प्रदक्षिणा देते हुए उड़ते हैं ।
संवर्तक वायु के द्वारा देवता योजन प्रमाण क्षेत्र को विशुद्ध रखते हैं ।
जहाँ भगवान् विचरण करते हैं, वहाँ वृक्षों की शाखाएँ इस प्रकार झुक जाती हैं मानों वे परमात्मा को प्रणाम कर रही हों ।
जहाँ-जहाँ भगवान् विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ मेघ गर्जना की तरह गंभीर व भुवनव्यापी घोषवाली देवदुन्दुभि बजती है ।
पूर्वोक्त १९ अतिशय देवकृत होते हैं । यहाँ कुछ अतिशय समवायांग से असम्मत हैं। वे अन्य मतानुसार समझना ।। ४४१-४५० ।।
समवसरण के रत्न, सुवर्ण और रजतमय तीनों प्राकार क्रमशः वैमानिक, ज्योतिषी एवं भुवनपति देवों के द्वारा निर्मित होते हैं।
नवनीत के समान मृदु-स्पर्श वाले नौ स्वर्ण-कमल भगवान् के चरण रखने के लिए आगे पीछे प्रदक्षिणाकार में चलते रहते हैं। दो पर तो भगवान् चरण रखते हैं तथा शेष पीछे चलते हैं। जो सबसे पीछे है वही सबसे आगे आता है ।
जहाँ-जहाँ भगवान् विचरण करते हैं वहाँ-वहाँ कांटे अधोमुख हो जाते हैं । भगवान् के केश, रोम, नख सदा अवस्थित ही रहते हैं (बढ़ते नहीं हैं )
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४१ द्वार :
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अठारह दोष
अन्नाण कोह मय माण लोह माया रई य अरई य ।
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