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प्रवचन-सारोद्धार
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नवकणयपंकयाइं अहोमुहा कंटया हंति ॥४४७ ॥ निच्चमवट्ठियमित्ता पहुणो चिटुंति केसरोमनहा । इंदियअत्था पंचवि मणोरमा हुंति छप्पि रिऊ ॥४४८ ॥ गंधोदयस्स वुट्ठी वुट्ठी कुसुमाण पंचवन्नाणं । दिति पयाहिण सउणा पहुणो पवणोऽवि अणुकूलो ॥४४९ ॥ पणमंति दुमा वज्जंति दुंदुहीओ गहीरघोसाओ। चउतीसाइसयाणं सव्वजिणिंदाण हुंति इमा ॥४५० ॥
-गाथार्थअतिशय ३४
सहज चार अतिशय-१. मल व रोग से रहित शरीर २. शुभ्र रक्त मांस ३. अदृश्य आहार-नीहार ४. सुगंधित श्वासोच्छ्वास-ये ४ अतिशय तीर्थंकर परमात्मा के जन्मसिद्ध हैं।
कर्मक्षयजन्य ग्यारह अतिशय-१. योजनप्रमाण समवसरण में तीनों जगत के जीवों का समावेश होना। २. निजभाषा में उपदेश देनेपर भी श्रोताओं को अपनी-अपनी भाषा में सुनाई देना। ३. पूर्वजन्य रोगों का उपशान्त होना। ४. जीवों का जातिगत वैर शान्त होना। ५. दष्काल न पड़ना। ६. स्वचक्र-परचक्र जन्य उपद्रव न होना। ७. मारी-महामारी न फैलना। ८. ईति-भीति न होना। ९.-१०. अतिवृष्टि, अनावृष्टि न होना। ११. सूर्य के तेज को जीतनेवाले भामंडल का प्रकाश सदा फैला हुआ रहना ।।४४१-४४४ ॥
देवकृत १९ अतिशय–१९ अतिशय देवकृत होते हैं-१. पादपीठ सहित मणिमय सिंहासन, २. छत्रत्रय, ३. इन्द्रध्वजा, ४. श्वेत चामर, ५. धर्मचक्र-ये पाँच वस्तुयें जहाँ परमात्मा विचरण करते हैं वहाँ आकाश में साथ-साथ चलते हैं। ६. जहाँ भगवान खड़े रहते हैं वहाँ अशोक का वृक्ष प्रकट होना। ७. शेष तीन दिशाओं में प्रभु की मूर्ति की रचना। ८. सुवर्ण-मणि और रजतमय तीन गढ़ों की रचना। ९. नौ सुवर्ण कमल की रचना। १०. काँटों का अधोमुख होना। ११. केश- रोम- नखों का न बढ़ना। १२. विषयों का अनुकूल होना। १३. सभी ऋतुओं की अनुकूलता। १४. गन्धोदक की वृष्टि। १५. पाँचवर्ण के पुष्पों की वर्षा होना। १६. पक्षियों का प्रदक्षिणा देना। १७. अनुकूल हवायें चलना। १८. वृक्षों का झुकना। १९. गंभीर स्वर में दुन्दुभि बजना। पूर्वोक्त ३४ अतिशय सभी जिनेश्वरों के होते हैं ।।४४५-४५० ।।
___-विवेचन
अतिशय = उत्कृष्ट गुण १. मल, व्याधि और स्वेद रहित तीर्थंकर भगवंतों की देह अलौकिक रूप, रस, गंध, एवं स्पर्शयुक्त
होती है।
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