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द्वार ३९-४०
पुष्प-वृष्टि नहीं करते हैं किंतु यह कथन भी ठीक नहीं है। कारण, समवसरण में साधुओं के आने, जाने या बैठने का स्थान कोई निश्चित नहीं होता है। वे सर्वत्र गमनागमन कर सकते हैं अत: पूर्वोक्त प्रश्न का सर्व गीतार्थ-सम्मत उत्तर तो यह है कि समवसरण में बरसाय गय पुष्प वास्तव में सचित्त ही है। किंतु, तीर्थकर परमात्मा के अचिन्त्य प्रभाव के कारण उनके ऊपर गमनागमन करने पर भी उन्हें पाडा नहीं होती, प्रत्युत सुर, नर मुनिवर के गमनागमन से सुधासिंचित की तरह पुष्प और अधिक विकस्वर बनते हैं।
प्रश्न—दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य के अन्तर्गत कैसे आ सकता है, क्योंकि वह देवकृत नहीं किन्तु परमात्मा की ही ध्वनि होती है?
उत्तर-तीर्थकर परमात्मा की वाणी, स्वाभाविक रूप से ही मधुर होती है। किन्तु देवों का यह कर्तव्य है कि जब परमात्मा “मालकोश" राग में प्रवचन देते हैं, वे दोनों ओर से वीणा, वेणु आदि से स्वर देकर भगवान् की वाणी को और अधिक मधुर बनाते हैं। अत: अंशत: दिव्यध्वनि प्रतिहारीकृत कहलाती है। लोक में भी देखा जाता है कि हारमोनियम, तबले, वीणा आदि का स्वर गायक के स्वर का सहकारी होता है. वैसे दिव्यध्वनि भी सहकारी है अत: प्रातिहार्य कहलाती है।। ४४० ॥
४० द्वार:
अतिशय
रयरोयसेयरहिओ देहो धवलाइं मंसरुहिराइं।
आहारानीहारा अद्दिस्सा सुरहिणो सासा ॥४४१ ॥ जम्माउ इमे चउरो एक्कारस कम्मखयभवा इम्हि ।
खेत्ते जोयणमेत्ते तिजयजणो माइ बहुओऽवि ॥४४२ ॥ नियभासाए नरतिरिसुराण धम्मावबोहया वाणी । पुव्वभवा रोगा उवसमंति न य हुंति वेराइं ॥४४३ ॥ दुब्भिक्ख डमर दुम्मारि ईई अइवुट्ठि अणभिवुट्ठीओ। हुंति न जियबहुतरणी पसरइ भामंडलुज्जोओ ॥४४४ ॥ सुररइयाणिगुवीसा मणिमयसीहासणं सपयवीढं । छत्तत्तय इंदद्धय सियचामर धम्मचक्काइं ॥४४५ ॥ सह जगगुरुणा गयणट्ठियाइं पंचवि इमाइं वियरंति । पाउब्भवइ असोओ चिट्ठइ जत्थप्पहू तत्थ ॥४४६ ॥ चउमुहमुत्तिचउक्कं मणिकंचणताररइयसालतिगं।
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