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________________ द्वार ३८ १९४ : 44:41 ५९. मुकुट धारण करना। ६०.. पुष्प आदि से निर्मित आभरण मस्तक पर धारण करना। ६१. साफा, पगड़ी आदि धारण करना। ६२. कबूतर, नारियल आदि की शर्त लगाना । ६३. गेंद, गोली, कोड़ी इत्यादि ६४. पितर आदि के निमित्त जिनमंदिर खेलना। में पिण्डदान करना। ६५. भांड की तरह तालियाँ आदि ६६. तिरस्कार सूचक शब्द बोलना। बजाना। ६७. युद्ध आदि करना। ६८. कर्जदार को मंदिर में बंद करना । ६९. केशों को खोलना, सुखाना। ७०. पालथी लगाकर बैठना। ७१. पाहुडी पहनना (पाहुडी = ७२. पैर फैलाना। काष्ठ की पादुका) ७३. सीटी, चुटकी, पीपाड़ी आदि बजाना। ७४. हाथ पाँव आदि धोकर कीचड़ करना । ७५. शरीर, वस्त्र आदि पर लगी हई ७६. मैथन सेवन करना। धूल झाड़ना। ७७. जूं लीख आदि डालना। ७८. भोजन करना। ७९. गुह्य = नग्न होना अथवा 'जुज्झ' ८०. वैद्य कर्म करना। ऐसा पाठ हो तो अर्थ होगा कि दृष्टि-युद्ध, बाहु-युद्ध आदि करना। ८१. क्रय-विक्रय करना। ८२. सोना, लेटना। ८३. पीने या पिलाने के लिए ८४. स्नान करना, हाथ-पैर आदि धोना। जलादि रखना या पीना। पूर्वोक्त आशातनाओं का त्याग करना चाहिये। इनके अतिरिक्त और भी हँसना, कूदना आदि सावद्य चेष्टाएँ आशातना के अन्तर्गत समझनी चाहिये। प्रश्न-पहले जिन-मन्दिर सम्बन्धी दस आशातनाएँ कही जा चुकी हैं शेष आशातनाएँ उपलक्षण से उन्हीं के अन्तर्गत आ जायेगी, तो उन्हें अलग क्यों कहा? उत्तर-जैसे-“ब्राह्मणा: समागता वशिष्ठोऽपि समागतः” । इन दो वाक्यों को कहने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वशिष्ठ का आगमन, ब्राहमणों के आगमन के अन्तर्गत ही आ जाता है, किन्तु ‘वशिष्ठ' की विशिष्टता सूचित करने के लिए उनको अलग से बताया गया। वैसे यहाँ भी बालजीवों के बोध के लिए उन्हें अलग से कहा गया है। प्रश्न—क्या ये आशातनाएँ गृहस्थ के लिए कर्मबन्ध का कारण हैं? उत्तर-हाँ, ये आशातनाएँ साधु व गृहस्थ दोनों के लिए भव-भ्रमण का कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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