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________________ प्रवचन-सारोद्धार १९५ कहा है आसायणा उ भवभमणकारणं इय विभाविउं जइणो। मलमलिणत्ति न जिणमंदिरंमि, निवसंति इय समओ॥ अर्थ-आशातना भवभ्रमण का कारण है, इस प्रकार जानकर, मल-मलिनगात्र वाले मुनि लोग जिन मंदिर में निवास नहीं करते । व्यवहार भाष्य दुब्भिगंधमलस्सावि, तणुरप्पेस ण्हाणिया। दुहावायवहो वावि, तेणं ठंति न चेइए। अर्थ-स्नान कराने पर भी यह शरीर, दुर्गन्धी, मल व पसीने का घर है । मुख और अपान से सतत वायु निकलती रहती है अत: आशातना का कारण होने से मुनिजन मंदिर में नहीं ठहरते। प्रश्न-तो फिर आशातना-भीरु यतियों को जिन मंदिर में जाना ही नहीं चाहिये? ' उत्तर- तिन्नि वा कड्डइ जाव, थुइओ तिसिलोइया । ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण उ ।। चैत्यवंदन के निमित्त साधु मंदिर में जा सकता है। चैत्यवंदन करते समय “सिद्धाणं-बुद्धाणं" की तीसरी गाथा बोलने तक मंदिर में रुकने की जिनाज्ञा है। सिद्धाणं-बुद्धाणं की अन्तिम दो गाथाएँ तथा चतुर्थ स्तुति का विधान भी गीतार्थ की आचरणा के अनुसार है और गीतार्थ की आचरणा गणधर भगवन्तों की आज्ञा की तरह ही मान्य है अत: चार स्तुति बोलने तक मंदिर में रुका जा सकता है। धर्म-श्रवण के इच्छुक भव्यों को धर्म-देशना देने हेतु भी मंदिर में रुकना जिनाज्ञा सम्मत है। इनके सिवाय अनावश्यक मन्दिर में रुकना आशातना का कारण है, तथा जिनाज्ञा-विरुद्ध होने से साधु एवं गृहस्थ दोनों को नहीं कल्पता। कहा है-“आणाइच्चियं चरणं" आज्ञा में ही चारित्र है ।। ४३३-४३९ ॥ |३९ द्वार: प्रातिहार्य 56006608600068353005588 कंकिल्लि कुसुमवुठ्ठी दिव्वझुणि चामराऽऽसणाइं च। भावलय भेरि छत्तं जयंति जिणपाडिहेराइं ॥ ४४० ॥ -गाथार्थमहाप्रातिहार्य ८.-१. अशोकवृक्ष, २. पुष्पवृष्टि, ३. दिव्यध्वनि, ४. चामर, ५. सिंहासन, ६. भामंडल, ७. दुन्दुभि और ८. छत्र जिनेश्वर परमात्मा के ये अष्ट प्रातिहार्य सदा जयवन्ते हैं ।।४४० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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