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________________ २० भूमिका १-२ में प्रस्तुत की गई है। ये सूचियाँ मुनि पद्मसेनविजयजी एवं डॉ. श्री प्रकाश पाण्डे की सूचना के आधार पर निर्मित हैं। प्रवचनसारोद्धार की टीका और टीकाकार __ प्रवचनसारोद्धार पर आचार्य सिद्धसेनसूरि की लगभग विक्रम की १३वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई 'तत्त्वज्ञानविकासिनी' नामक एक सरल किन्तु विशद टीका उपलब्ध होती है। नामभ्रम से बचने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि ये सिद्धसेनसूरि 'सन्मतितर्क' के रचयिता सिद्धसेन दिवाकर (चतुर्थ शती), तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के लेखक सिद्धसेनगणि (सातवीं शती), न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि (नौवीं शती) से भिन्न हैं। ये चन्द्रगच्छीय आचार्य अभयदेवसूरि की परम्परा में हुए हैं। इन्होंने प्रस्तुत टीका के अन्त में अपनी गुरू-परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है- अभयदेवसूरिधनेश्वरसूरि- अजितसिंहसूरि- वर्धमानसूरि- देवचन्द्रसूरि- चन्द्रप्रभसूरि- भद्रेश्वरसूरिअजितसिंहसूरि- देवप्रभसूरि और सिद्धसेनसूरि । टीकाकार सिद्धसेनसूरि की तीन अन्य कृतियों—(१) पद्मप्रभचरित्र, (२) समाचारी और (३) एक स्तुति का उल्लेख मिलता है। प्रवचनसारोद्धार की तत्त्वज्ञान-विकासिनी नामक यह वृत्ति या टीका भी टीकाकार की बहुश्रुतता को अभिव्यक्त करती है। उन्होंने अपनी टीका में लगभग १०० ग्रन्थों का निर्देश किया है और उनके ५०० से अधिक सन्दर्भो का संकलन किया है। इन उद्धरणों की सूची भी पिण्डवाडा से प्रकाशित प्रवचनसारोद्धार भाग-२ के अन्त में दे दी गई है। इससे वृत्तिकार की बहुश्रुतता प्रमाणित हो जाती है । वृत्तिकार ने जहाँ आवश्यकता हुई वहाँ न केवल अपनी विवेचना प्रस्तुत की अपितु पूर्वपक्ष को प्रस्तुत कर उसका समाधान भी किया है। जहाँ कहीं भी उन्हें व्याख्या में मतभेद की सूचना प्राप्त हुई, उन्होंने स्पष्ट रूप से अन्य मत का भी निर्देश किया है। इसी प्रकार जहाँ मूल पाठ के सन्दर्भ में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति दिखाई दी, उन्होंने पाठ को अपनी दृष्टि से शुद्ध बनाने का भी प्रयत्न किया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की यह टीका भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रवचनसारोद्धार की विषयवस्तु प्रवचनसारोद्धार के प्रारम्भ में मंगल अभिधान के पश्चात् ६३ गाथाओं में प्रवचनसारोद्धार के २७६ द्वारों का उल्लेख किया गया है, इन द्वारों के नामों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कृति में जैन धर्म व दर्शन के विविध पक्षों को समाहित करने का प्रयत्न किया गया है। यद्यपि 'प्रवचनसारोद्धार' में मूल गाथाओं की संख्या मात्र १५९९ है, फिर भी इसमें जैन धर्म व दर्शन के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों को समाहित करने का प्रयास किया गया है। मूल गाथाओं की संख्या कम होते हुए भी इसका विषय वैविध्य इतना है कि इसे 'जैन-धर्म-दर्शन का लघुविश्वकोष' कहा जा सकता है। आगे हम इसके २७६ द्वारों की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। "प्रवचनसारोद्धार' के प्रथम द्वार में चैत्यवंदन विधि का विवेचन किया गया है। चैत्यवंदन के सम्बन्ध में सर्वप्रथम दसत्रिकों की चर्चा की गई है। ये दस त्रिक निम्न हैं—(१) त्रि-निषेधिका, (२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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