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प्रवचन - सारोद्धार
त्रि-प्रदक्षिणा, (३) त्रि-प्रणाम, (४) त्रिविध-पूजा, (५) त्रि- अवस्था/ भावना, (६) त्रिदिशा - निरीक्षणविरति, (७) त्रिविध भूमिप्रमार्जन, (८) वर्ण-त्रिक, (९) मुद्रा-त्रिक और (१०) प्रणिधान -त्रिक ।
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चैत्यवन्दन के हेतु जिन - भवन में प्रवेश करते सर्वप्रथम पुष्प माला, ताम्बूल आदि सचित्त द्रव्यों का परिहार करे, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का परिहार नहीं करे और एक अधोवस्त्र और एक उत्तरीय धारण करे । ज्ञातव्य है कि कुछ आचार्यों के अनुसार यहाँ अहंकार सूचक अचितद्रव्य जैसे छत्र, चामर, मुकुट आदि के भी त्याग का निर्देश है। प्रवचनसारोद्धार की टीका इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचना करती है। चक्षु के द्वारा जिन प्रतिमा दिखाई देने पर अंजलि प्रग्रह करे और एकाग्रचित्त होकर पूर्वोक्त दसत्रिकों का अनुसरण करता हुआ जिन प्रतिमा का वन्दन करे। ये दस त्रिक निम्नानुसार हैं—
१. सर्वप्रथम निषेधिका त्रिक में (i) गृही जीवन सम्बन्धी सावद्य व्यापार का प्रतिषेध (ii) जिनभवन सम्बन्धी सावद्य व्यापार का त्याग और (iii) पूजा विधान सम्बन्धी सावद्य व्यापार का त्याग । कुछ अन्य आचार्यों के अनुसार ये तीन निषेधिकाएँ इस प्रकार हैं - ( १ ) जिन मन्दिर के मुख्य द्वार पर आकर गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों का निषेध करे, (२) फिर जिन-मन्दिर के मध्य भाग (रंग- मण्डप) में प्रवेश करते समय सावद्य (हिंसक) वचन - व्यापार का निषेध करे और (३) गर्भगृह में प्रवेश करने पर सभी सावद्य (हिंसक ) कार्यों के मानसिक चिन्तन का भी निषेध करे—यह निषेधिकात्रिक है ।
२. जिन प्रतिमा की तीन प्रदक्षिणा करना प्रदक्षिणात्रिक है
३. जिन प्रतिमा को तीन बार प्रणाम करना प्रणामत्रिक है ।
४. पूजा त्रिक के अन्तर्गत तीन प्रकार की पूजा का उल्लेख किया गया है - ( १ ) पुष्प-पूजा (२) अक्षत-पूजा और (३) स्तुति-पूजा ।
५. जिन की छद्मस्थ, कैवल्य और सिद्ध – इन तीन अवस्थाओं का चिन्तन करना त्रि- अवस्था भावना है।
६. तीन दिशाओं में न देखकर मात्र जिन-बिम्ब के सम्मुख दृष्टि रखना 'त्रि-दिशानिरीक्षणविरति'
है ।
७. जिस भूमि पर स्थित रहकर जिन प्रतिमा को वन्दन करना है उस स्थल का गृहस्थ द्वारा वस्त्र अञ्चल से और मुनि द्वारा रजोहरण से तीन बार प्रमार्जन करना प्रमार्जनात्रिक है ।
८. शब्द, अर्थ एवं आलम्बन (प्रतिमा) ये वर्ण-त्रिक है 1
९. मुद्रात्रिक के अन्तर्गत तीन प्रकार की मुद्राएँ बतायी गई हैं
(i) जिनमुद्रा, (ii) योगमुद्रा, (iii) मुक्ताशुक्ति मुद्रा ।
१०. मन, वचन और काया की प्रवृतियों का संवरण करके परमात्मा की शरण ग्रहण करना प्रणिधानत्रिक है 1
'चैत्यवन्दनद्वार' में उपरोक्त दशत्रिकों के साथ-साथ स्तुति एवं वन्दन विधि का तथा द्वादश अधिकारों का विवेचन है । अन्त में चैत्यवन्दन कब और कितनी बार करना आदि की चर्चा के साथ
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