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________________ १६० द्वार १२-१४ • अनुयोगद्वार सूत्र में तथा आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भी यही उल्लेख है राजा बाहुबलि: सूर्ययशा: सोमयशा अपि । अन्येप्यनेकश: केऽपि शैवं केऽपि दिवं ययुः ।। जितशत्रु: शिवं प्राप, सुमित्रस्त्रिदिवं गतः ।। -३२५-३२९॥ |१३ द्वारः | विहरमानजिन सत्तरिसय मुक्कोसं जहन्न वीसा य दस य विहरंति। -गाथार्थविहरमान तीर्थंकर-ढाई द्वीप में एक साथ एक सौ सित्तर तीर्थंकर उत्कृष्ट से, बीस तीर्थंकर जघन्य से या दस तीर्थंकर जघन्य से विचरण करते हुए मिलते हैं। -विवेचन' उत्कृष्टत:-मनुष्य क्षेत्र में एक साथ १७० जिनेश्वर होते हैं। यथा-५ महाविदेह में से प्रत्येक विदेह में ३२-३२ विजय होने से कुल १६० विजय होती है। प्रत्येक विजय के एक-एक तीर्थंकर और ५ भरत और ५ ऐवत के एक-एक तीर्थंकर कुल मिलाकर १६० + १० = १७० जिन होते हैं। जघन्यत-एक साथ २० तीर्थंकर होते हैं। यथा-शीतानदी के कारण जंबूद्वीप की पूर्वविदेह के दो भाग होते हैं। एक उत्तरी भाग और दूसरा दक्षिणी भाग। इसी प्रकार शीतोदा नदी के कारण पश्चिम विदेह के भी दो भाग होते हैं। इस प्रकार जंबूद्वीप की विदेह के कुल ४ भाग होते हैं तथा धातकी खण्ड व पुष्करार्ध में दो-दो विदेह होने से उनके ८-८ भाग होते हैं। पाँचों ही विदेह के कुल मिलाकर २० भाग हुए। जब उनमें एक-एक तीर्थंकर विचरण करते हैं, तब २० तीर्थंकर होते हैं। (भरत-ऐरवत में 'सुषमा' आदि आरों में तीर्थंकर नहीं होते अत: जघन्यत: २० कहा)। । अन्यमते-कुछ आचार्यों का मत है कि ५ विदेह में से पूर्व और पश्चिम विदेह में ही तीर्थंकर होते हैं अत: जघन्यत: १० तीर्थंकर ही होते हैं। १४ द्वार : जन्म-संख्या-(जघन्य-उत्कृष्ट) जम्मं पइ उक्कोसं वीसं दस य हुंति उ जहन्ना ॥३२७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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