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(२)
(३)
६. बहुश्रुत
७. तपस्वी
श्रुत- स्थविर
पर्याय - स्थविर
८. अनवरत ज्ञानोपयोग ९. दर्शन
१०. विनय
११. आवश्यक
१२/१३. शीलव्रत
१४. क्षणलव-समाधि
१५. तप-समाधि
१६. त्याग- समाधि
(i) द्रव्य त्याग
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समवायाङ्ग सूत्र को जानने वाले । जिनका दीक्षा पर्याय २० वर्ष का
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जिनका श्रुत ज्ञान विशद है, वे बहुश्रुत हैं। बहुश्रुतता सापेक्ष है । श्रुत के तीन भेद हैं— सूत्र, अर्थ और तदुभय। सूत्र को जाननेवाला श्रेष्ठ है, सूत्र की अपेक्षा अर्थ को जानने वाला श्रेष्ठतर है और सूत्र व अर्थ दोनों को जानने वाला बहुश्रुत श्रेष्ठतम है। अनेकविध तप करने वाला साधु । पूर्वोक्त सातों स्थानकों के प्रति वात्सल्य भाव या अनुराग रखना, उनका गुण-कीर्तन करना, उनकी सेवा, वैयावच्च करना आदि तीर्थंकर नाम कर्म के बंध के कारण हैं ।
सतत ज्ञान में रमण करना ।
सम्यक्त्व ।
(ज्ञानादि विनय) ज्ञानादि का विनय करना । प्रतिदिन अवश्य करने योग्य प्रतिक्रमणादि ।
शील
उत्तरगुण, व्रत = मूलगुण । ८ से १३ तक के ६ स्थानों का निरतिचार पालन तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण
है
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द्वार १०
(ii) भाव-त्याग
• इन दोनों ही प्रकार के त्याग में सूत्रानुसार यथाशक्ति निरन्तर प्रवृत्ति करना । १७. दशविध वैयावच्च
संसार से विरक्ति, मोक्ष की अभिलाषा तथा ध्यानादि के द्वारा प्रति समय मन को समभाव में स्थिर करना ।
बाह्य व आभ्यन्तर, दोनों प्रकार के तप में यथाशक्ति सतत प्रवृत्ति
करना ।
त्याग दो प्रकार का -(i) द्रव्य त्याग और (ii) भाव - त्याग । अकल्पनीय आहार, उपाधि, शय्यादि का त्याग करना एवं कल्प्य आहार, उपधि, शय्यादि अन्य मुनियों को देना ।
क्रोधादि का त्याग करना तथा मुनियों की ज्ञानादि की आराधना में सहायक बनना ।
१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, ४. तपस्वी, ५. ग्लान, ६. शैक्षक, ७. कुल, ८. गण, ९. संघ व १०. स्वधर्मी । पूर्वोक्त दसों का तेरह प्रकार से वैयावच्च करना ।
वैयावच्च के तेरह प्रकार- १. भोजन, २. पान, ३. आसन, ४. उपकरण- पडिलेहण, ५. पाद- प्रमार्जन, ६. वस्त्र-प्रदान, ७. औषधि दान ८. चलने में सहायता ९. दुष्टों से रक्षण, १०. वसति में प्रवेश करते
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