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________________ प्रवचन-सारोद्धार १५७ समय दण्ड-ग्रहण, ११. मात्रे के लिये मात्रक-अर्पण, १२. स्थंडिल हेतु मात्रक अर्पण, १३. श्लेष हेतु मात्रक अर्पण। • भोजनादि के द्वारा आचार्य आदि दश का यथाशक्ति वैयावच्च करना। १८. अपूर्व ज्ञान - ग्रहण करना १९. श्रुतभक्ति - श्रुत विषयक बहुमान । २०. प्रवचन प्रभावना - उपदेश आदि देकर शासन की प्रभावना करना। इन बीस पदों की आराधना से जीव तीर्थंकर पद प्राप्त करता है। • प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने पूर्वभव में बीसों ही पदों की आराधना की थी। मध्य के बाईस तीर्थंकरों में से किसी ने दो, किसी ने तीन और किसी ने बीसों पदों की आराधना की थी। भक्ति = हार्दिक बहुमान । पूजा = यथोचित पुष्प, फल, आहार आदि के द्वारा सम्मान करना। वर्ण-प्रकटन = सद्गुणों की प्रशंसा करना। अरिहन्त आदि पदों की निन्दा व आशातना करने का त्याग करना। • अरिहंत आदि पदों के प्रति स्नेह, अनुराग रखना वत्सलता है। भात-पानी के दान द्वारा गुरु आदि को शान्ति पहुँचाना समाधि है। उसके पूर्वोक्त १० प्रकार हैं। अथवा बारहवाँ शील और तेरहवाँ व्रत, इन दोनों को एक स्थानक मानकर 'समाधि' को तीर्थकर नामकर्म के बंध का भिन्न ही स्थानक मानना । अब अर्थ होगा कि गुरु आदि दश की तेरह प्रकार से वैयावच्च करना तथा उसके द्वारा गुरु आदि को शान्ति पहुँचाना समाधि है। • तीर्थंकर नामकर्म का बंध मनुष्यगति में वर्तमान पुरुष, स्त्री या नपुंसक तीनों ही कर सकते हैं। इसके बंध का प्रारम्भ तीर्थंकर के भव से पूर्व के तीसरे भव में करते हैं। प्रश्न—तीर्थंकर नामकर्म का बंध, जघन्य व उत्कृष्ट अंत: कोटाकोटि सागरोपम से कम नहीं होता। यदि तीसरे भव में इसका बंध मानें तो तीसरे भव से लेकर तीर्थंकर के भव तक इतना काल पूर्ण नहीं होता। देव की उत्कृष्ट आयु ३३ सागर की है, तीर्थकर योग्य मनुष्य की आयुष्य अधिक से अधिक पूर्व क्रोड वर्ष की हो सकती है। कुल मिलाकर भी यह काल तीर्थकर नामकर्म के बंध काल के तुल्य नहीं होता। अत: तीसरे भव में इसका बंध कैसे सम्भव होगा? उत्तर-तीसरे भव में बंध की बात निकाचना की दृष्टि से कही गई है अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना तीसरे भव में होती है, अनिकाचित बंध तो उससे पूर्व ही हो जाता है क्योंकि उसका काल अन्त:कोटाकोटि सागर है। पर निकाचित बंध का काल तीन भव ही है। । निश्चित फल देने वाला कर्म निकाचित है। अनिकाचित कर्म का फल देना निश्चित नहीं है। तपश्चर्या आदि से क्षय भी हो सकते हैं। निकाचितवन्ध तीसरे भव से लेकर, तीर्थंकर के शव में अपूर्वकरण का संख्याता भाग बीतने तक चलता रहता है। तीर्थंकर नामकर्म का वेदन, इन्द्रादि के द्वारा अष्टमहाप्रातिहार्य रूप पूजा, १२ परिषद के बीच स्वस्थतापूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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