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प्रवचन-सारोद्धार
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BACHAR
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आवस्सयजोएसुं सीलवएसुं निरइयारो ॥३१६ ॥ संवेगभावणा झाणसेवणं खणलवाइकालेसु। तवकरणं जइजणसंविभागकरणे जहसमाही ॥३१७ ।। वेयावच्चं दसहा गुरुमाईणं समाहिजणणं च। किरियादारेण तहा अपुव्वनाणस्स गहणं तु ॥३१८ ॥ आगमबहुमाणो च्चिय तित्थस्स पभावणं जहासत्ती। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं समज्जिणइ ॥३१९ ॥
-गाथार्थवीशस्थानक-१. अरिहंत, २. सिद्ध, ३. प्रवचन, ४. आचार्य, ५. स्थविर, ६. बहुश्रुत, ७. तपस्वी, ८. सततज्ञानोपयोग, ९. निरतिचार दर्शन, १०. विनय, ११. आवश्यक, १२-१३. निरति चार शील तथा व्रत, १४. क्षणलव, १५. तपसमाधि, १६. त्यागसमाधि, १७. वैयावच्च में समाधि, १८. अपूर्व ज्ञानग्रहण, १९. श्रुतभक्ति, २०. प्रवचनप्रभावना-इन कारणों से जीव तीर्थंकर पद प्राप्त करता है ॥३१०-३१२ ॥
___ संघ, धर्मोपदेशक गुरु, सूत्र-अर्थ-तदुभय के ज्ञाता बहुश्रुत, जन्म, श्रुत और पर्याय तीनों से स्थविर-जैसे साठ वर्ष की उम्रवाला वय स्थविर है, समवायांग का ज्ञाता श्रुतस्थविर है और बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला मुनि पर्याय स्थविर है। भक्ति, पूजा, अवर्णवाद का त्याग, आशातना का परिहार-ये अरिहंत आदि सात का वात्सल्य है। सतत ज्ञानोपयोग, दर्शनशुद्धि, विनयशुद्धि आवश्यक योग, शील तथा व्रत का निरतिचार पालन, संवेग, भावना, ध्यान का आसेवन, तपश्चरण, मुनियों का संविभाग, गुरु आदि दश की समाधिदायक सेवा द्वारा वैयावच्च करना, अपूर्व ज्ञानग्रहण, आगमों का बहुमान और यथाशक्ति तीर्थप्रभावना करना ये तीर्थंकर पद प्राप्ति के अमोघ उपाय हैं ।।३१३-३१९ ।।
___-विवेचन१. अरिहंत
- जो अष्ट प्रातिहार्यादिरूप पूजा के योग्य हैं, वे अरिहंत-तीर्थंकर
कहलाते हैं। २. सिद्ध
--- जिनके सर्वकर्म नष्ट हो चुके हैं, जो अनन्त सुख के भोक्ता एवं
कृतकृत्य हैं, वे सिद्ध हैं। ३. प्रवचन
द्वादशाडी अथवा उसका उपयोग करने वाला संघ। ४. गुरु (आचार्य)
- यथावस्थित शास्त्रार्थ के प्रतिपादक, धर्मोपदेशक गुरु हैं। ५. स्थविर
- तीन प्रकार के हैं(१) जाति-स्थविर - जिनकी उम्र साठ वर्ष या उससे अधिक है।
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