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कि पौषध पूर्ण होने पर अच्छी तरह से स्नानादि करूँगा । पूर्व में भोगे हुए भोगादि का स्मरण करना । कामोद्दीपक वचनादि बोलना । विकारवर्धक चेष्टाएँ करना । व्यापार सम्बन्धी चिन्तन करना कि पौषध पालने के बाद यह लेन-देन करूँगा । इस प्रकार चिन्तन करने से अतिचार लगता है ।
समाचारी
पौषधग्रहण करके अप्रत्युपेक्षित वसति, संथारा, शय्या आदि का उपयोग नहीं करना चाहिये । संथारा, दर्भवस्त्र (चटाइ), शुद्ध वस्त्र (ऊन) आदि का होना चाहिये । स्थण्डिलभूमि से आने के बाद संथारे की प्रमार्जना करके बैठना व सोना चाहिये । अन्यथा अतिचार लगता है। पाट-पीठ आदि के लिए भी यही समझना ।
१. अप्रत्युपेक्षित - दृष्टि से नहीं देखा हुआ ।
२. दुष्प्रत्युपेक्षित
- विभ्रान्त चित्त से देखा हुआ ।
- रजोहरण आदि से अशोधित ।
३. अप्रमार्जित ४. दुष्प्रमार्जित - अविधि और अनुपयोग से रजोहरणादि द्वारा संशोधित ।। २८५ ।। १२. अतिथि संविभाग व्रत - इस व्रत के भी पांच अतिचार है:(i) सचित्तनिक्षेप
साधु आदि को वहोराने की इच्छा न होने से अचित्त (वहोराने योग्य) वस्तु को सचित्त वस्तु के साथ मिलाना या सचित्त वस्तु पर रखना। मैंने अतिथि संविभाग व्रत लिया है उसके अनुसार मुझे मुनि को अवश्यवहोराना चाहिये किन्तु मुनि लोग सचित्त
संघट्टे वाली वस्तु ग्रहण नहीं करते अतः मैं उन्हें सचित्त पर रखकर वहोराऊँगा किन्तु उसे मुनि लेंगे नहीं । मेरा व्रत भी सुरक्षित रह जायेगा और वस्तु भी बच जायेगी । इस प्रकार व्रत सापेक्ष होने से अतिचार ।
(ii) सचित्तपिधान (iii) अन्यव्यपदेश
(iv) मात्सर्य
द्वार ६
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वहोराने योग्य वस्तु को सचित्त वस्तुओं से ढंक देना । वहोने की भावना न होने से अपनी वस्तु को दूसरों की बताना । ताकि साधु उस वस्तु को अन्य की जानकर मालिक की अनुज्ञा के बिना ग्रहण नहीं करेंगे। इस प्रकार वस्तु भी बच जायेगी और नियम भंग भी नहीं होगा ।
मत्सर अर्थात् क्रोध । जिसमें क्रोध है वह मत्सरी है। उसका भाव मात्सर्य है । मात्सर्यपूर्वक देने वाले का व्रत दूषित होता है । अर्थात् कोई माँगे तो गुस्सा करना । वस्तु होने पर भी न देना अथवा अहंकार व ईर्ष्यापूर्वक दान देना यथा, मेरा पड़ौसी जो कि इतना गरीब है, उसने भी मुनि को वहोराया तो क्या मैं नहीं वहोरा सकता ? इस प्रकार मात्सर्य पूर्वक दान देना ।
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