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प्रवचन - सारोद्धार
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उसे अपने पास बुलाना । दोनों तरह से अतिचार लगता है । व्रतसापेक्ष होने से भंग नहीं होता ।
विवक्षित क्षेत्र से बाहर पत्थर आदि फेंक कर दूसरे को अपना अभिप्राय सूचित करना । विवक्षित व्यक्ति भी उसका अभिप्राय जानकर उसके पास पहुँचकर कार्य सम्पन्न करता है ।
पहले दो अतिचार अनाभोग, सहसाकार एवं मंद बुद्धि वश लगते हैं । अन्तिम तीन मायाचार
से ।
(v) पुद्गलक्षेप
वृद्धा:
केचित्
अन्यमत
देशावकाशिक व्रत दिग्व्रत का संक्षेप है, यह कथन उपलक्षण मात्र है। दिग्वत के संक्षेप की तरह अन्य व्रतों का भी संक्षेप अवश्य होना चाहिये । यदि ऐसा मानें तो प्रतिव्रत का संक्षेप अलग व्रत के रूप में होने से व्रत की संख्या १२ से अधिक हो जायेगी। इसके उत्तर में किसी का कहना है किदेशावकाशिक व्रत दिग्व्रत का ही संक्षेप है अन्य व्रतों का नहीं क्योंकि उसके अतिचार दिग्व्रत का ही अनुसरण करते हैं । जैसे उपलक्षण से देशावकाशिक व्रत शेष व्रतों का संक्षेप है, वैसे उपलक्षण से उसके अतिचार भी मूल व्रतों के अनुसार ही होंगे ।
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प्रश्न- तब तो दिग्वत के संक्षेप रूप देशावकाशिक व्रत के अतिचार वे ही होने चाहिये जो कि दिव्रत के हैं, प्रेष्यप्रयोगादि अलग से नहीं होने चाहिये ?
उत्तर - प्राणातिपात विरमण आदि के संक्षेप रूप देशावकाशिक व्रत के अतिचार वे ही होंगे, जो मूल व्रत के हैं पर, दिग्वत के संक्षेप रूप देशावकाशिक व्रत में क्षेत्र का संक्षेपीकरण होने से उसके स्वयं के प्रेष्य-प्रयोगादि अतिचार भी रहेंगे । इसलिये दिग्व्रत और देशावकाशिक व्रत के अतिचार अलग-अलग बताये पर अन्य व्रतों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है । इसका प्रमाण है रात्रिभोजन विरमण व्रत । 'रात्रिभोजन विरमण व्रत' 'प्राणातिपात विरमण' का संक्षेप है । इसीलिये उसके अतिचार अलग से कहीं नहीं बताये ॥ २८४ ॥
११. पौषधव्रत- इसके भी पांच अतिचार है:
(i) अप्रतिलेखित व अप्रमार्जित भूमि में पौषध लेना ।
(ii) अप्रत्युपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित स्थंडिल भूमि में मात्रा आदि परठना ।
(iii) अप्रमार्जित, दुष्प्रमार्जित वसति, संथारा आदि का ग्रहण करना ।
(iv) अयोग्य स्थान पर मल-मूत्र विसर्जित करना ।
(v) पौषधवत का दृढ़ता से पालन न करना । जैसे, पौषध में भूख लगने पर विचारना कि प्रात:काल घृतादि से युक्त अच्छा भोजन बनवाऊँगा । द्राक्षापानादि पीऊँगा। गर्मी लगने पर सोचना
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