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(v) अनवस्थित करण
१० देशावकाशिक व्रत
(i) आनयन
(ii) प्रेष्यप्रयोग
(iii) शब्दानुपात
(iv) रूपानुपात
स्मृतिमूलत्वान्मोक्षसाधनानुष्ठानस्य ।
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द्वार ६
जिस प्रमादी आत्मा को इतना भी याद नहीं रहता कि “मैंने सामायिक लिया या नहीं ?” उसकी सामायिक निष्फल जाती है ।
नियत समय पर सामायिक न करना, सामायिक का सम्यक् पालन न करना, सामायिक अनादर से करना, सामायिक लेकर तुरन्त पार लेना ।
पहले तीन अतिचार अनाभोग से समझना अन्यथा व्रत भंग हो जाता है । अन्तिम दो प्रमादाचरित हो तो अतिचार, अन्यथा व्रतभंग ।। २८२ ॥
दिग्व्रत में देशावकाशिक का अन्तर्भाव हो जाता है किन्तु कुछ विशेषताएँ होने से इसे अलग कहा गया। दिग्वत की काल मर्यादा यावज्जीव, वर्ष, चारमास मास आदि की है, जबकि देशावकाशिक व्रत दिन, प्रहर, मुहूर्त प्रमाण होता है । इसके पाँच अतिचार हैं ।
नियमित क्षेत्र के बाहर से वस्तु मँगवाना । नियमित क्षेत्रोपरान्त यदि मैं स्वयं जाऊँगा तो व्रतभंग होगा, यह सोचकर स्वयं नहीं किन्तु दूसरे से वस्तु मँगवाना । व्रत सापेक्ष होने से अतिचार । मर्यादित क्षेत्र से बाहर अन्य को भेजकर वस्तु आदि पहुँचाना। * व्रतभंग के भय से स्वयं न जाना। जाने-आने से होने वाली हिंसा से बचने के लिए देशावकाशिक व्रत लिया जाता है । अतः व्रती स्वयं न जाकर किसी दूसरे को भेजता है तो भी हिंसाजन्य दोष तो लगता ही है। अपितु स्वयं जाने में ईर्यासमिति का पालन होता है जबकि दूसरे को भेजने में कोई विश्वस्तता नहीं रहती ।
मर्यादित क्षेत्र से बाहर काम पड़ने पर स्वयं न जाना किन्तु शब्द - संकेत से सीटी आदि बजाकर दूसरों को बुलाना । मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं न जाना किन्तु विवक्षित व्यक्ति की नजर उस पर पड़े, इस प्रकार खड़े रहना ताकि जिन्हें बुलाना हो वे उसके पास पहुँच जायें । विवक्षित क्षेत्र से बाहर रहे हुए व्यक्ति को व्रतभंग के भय से जाकर बुलाना सम्भव न हो, ऐसी स्थिति में आवाज देकर, शब्द संकेत से या अपना रूप दिखाकर
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