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________________ १३६ द्वार ६ करना चतुर्थ व्रत का अतिचार है। यदि अनाभोग व अतिक्रम से सेवन करे तो ही अतिचार लगता है, अन्यथा व्रतभंग हो जाता है। हरिभद्रसूरि-मतम्-इत्वरपरिगृहीता गमन व अपरिगृहीता गमन ये दोनों अतिचार स्वदार सन्तोषी को ही लगते हैं, परदारवर्जक को नहीं। क्योंकि वेश्या और अपरिगृहीता (स्वैरिणी, अनाथकुलांगना आदि) अनाथता के कारण 'परदार' अर्थात् दूसरों की पत्नी की कोटि में नहीं आती। शेष तीनों अतिचार स्वदार सन्तोषी व परदारवर्जक दोनों से सम्बन्धित हैं। सूत्रानुसार भी यही मत है। जैसा कि सूत्र में कहा है-'ये पाँचों अतिचार स्वदार सन्तोषी के द्वारा जानने योग्य हैं पर आचरण करने योग्य नहीं हैं। - अन्य मतानुसार (द्वितीय मतम्) ---इत्वरपरिग्रहा का सेवन करने में स्वदार सन्तोषी को अतिचार लगता है जैसा कि ऊपर कहा है। परन्तु अपरिगृहीता के सेवन में स्वदारसंतोषी का व्रतभंग ही होता है। क्योंकि अपरिगहीता परदार रूप है। अपरिगृहीता का सेवन परदारवर्जक के लिए अतिचार है। अपरिगृहीता वेश्या है। यदि वह किसी अन्य द्वारा किराया देकर अपनाई गई है और परदारवर्जक उसका सेवन करता है तो उसे दोष लगता है क्योंकि वह कुछ समय के लिये 'परदार' है । पर वास्तव में वेश्या लोक में 'परदार' नहीं मानी जाती अत: उसके सेवन में व्रत की अभंगता के कारण अतिचार ही माना जाता है। तृतीय मतम्-परदारवर्जक के चतुर्थ व्रत सम्बन्धी पाँच अतिचार हैं, पर स्वदारसंतोषी के तीन ही हैं। स्त्रियों के अपेक्षा भेद से तीन व पाँच अतिचार हैं। तात्पर्य यह है कि किराया देकर कुछ समय के लिए दूसरों के द्वारा अपनाई गई वेश्या का सेवन करने वाले परदारवर्जक का अंशत: व्रतभंग हो जाता है क्योंकि इस समय वेश्या भी क्रीत होने से 'परदार' है। परन्त लौकिक दष्टि से भी परदार नहीं मानता अत: अंशत: व्रत अभंग भी है। इस तरह वेश्या का सेवन करने में परदारवर्जक को अतिचार ही लगता है सर्वथा व्रतभंग नहीं होता। वैसे अपरिगृहीता के सेवन में भी परदारवर्जक को अतिचार ही लगता है क्योंकि उसकी समझ में अनाथ कुलांगना का कोई पति न होने से वह 'परदार' नहीं है पर लोक में उसे 'परदार' समझा जाता है। इस प्रकार भंगाभंगरूप होने से यह भी 'परदारवर्जक' के लिए अतिचार रूप ही है। शेष तीन अतिचार दोनों-परदारवर्जक व स्वदारसंतोषी के लिए समान है। इस मतानुसार स्वदार संतोषी के लिए इत्वरपरिगृहीतागमन और अपरिगृहीतागमन ये दोनों ही व्रतभंग रूप हैं। कारण वेश्या, अनाथ, कुलांगना आदि स्वदारसंतोषी के लिए परदार रूप ही है। स्त्री के लिए स्वपुरुष-संतोष व परपुरुषवर्जन ऐसे कोई भेद नहीं है कारण स्वपुरुष से भिन्न स्त्री के लिये सभी परपुरुष हैं। अत: पूर्वोक्त दोनों अतिचार स्त्री के सम्बन्ध में घटित नहीं होते। शेष तीन अतिचार स्वदार-संतोषी पुरुष की तरह ही घटित होते हैं । परस्त्री के लिये अनंगक्रीडादि स्वपुरुष सम्बन्धी समझना। प्रश्न-ऊपर गाथा में स्त्रियों के लिए अपेक्षा भेद से तीन या पाँच अतिचार की बात कही है, फिर यह कैसे घटेगी? वेण्या को कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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