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________________ प्रवचन-सारोद्धार १३५ चोरी।' इस भावना से व्रत की अपेक्षा भी है तथा ऐसा व्यक्ति लोक में चोर नहीं समझा जाता इसलिये विरुद्ध राज्य व्यवहार अतिचार ही है। समान वस्तुओं का भेलसेल करना। जैसे, व्रीही में पलंज, घी में चर्बी, तेल में मूत्र, शक्कर में सिकता, शुद्ध सोने व चाँदी में नकली सोना-चाँदी मिलाकर व्यापार करना यह पाँचवाँ अतिचार (v) सदृशयुति ४. स्वदारा संतोष विरमण व्रत (i) इत्वरपरिग्रहा अदत्तादान व्रत के तीसरे व पाँचवें अतिचार में ठगाई से दूसरों का धन ग्रहण करने की बात है। वास्तव में तो ये व्रत का भंग ही करते हैं, पर अदत्तादान व्रत को ग्रहण करने वाला तो यही समझता है कि मैंने सेंध लगाकर चोरी आदि करने का ही त्याग किया है व्यापार का नहीं। मिलावट आदि तो व्यापार की कला है। इस प्रकार व्रत की अपेक्षा रहने से ये सब अतिचार रूप ही हैं ।। २७६ ॥ - स्व-स्त्री में सन्तोष रखते हुए अब्रह्म का त्याग करना। इसके पाँच अतिचार हैं। १. इत्वरपरिग्रहिता, २. अपरिगृहिता ३. तीव्र अभिलाषा, ४. अनंगक्रीड़ा, ५. पर-विवाह । - अल्प समय के लिए जिसे किराया देकर (भोग के लिए) अपनाया जाता है वह स्त्री 'इत्वरपरिग्रहा' कहलाती है। अथवा प्रत्येक पुरुष के साथ गमन करने वाली वेश्या इत्वरी कहलाती है। उसे कुछ समय के लिए किराया देकर अपनाना। चतुर्थव्रती इनका सेवन करे तो अतिचार लगता है। सारांश यह है कि किराया देकर अल्पकाल के लिए स्वीकृत वेश्या को सेवन करने वाला यही समझता है कि यह कुछ समय के लिए मेरी पत्नी है। इस प्रकार वेश्या का सेवन व्रत सापेक्ष होने से व्रतभंग नहीं करता। परन्तु वेश्या का परिग्रह अल्पकालीन है, वास्तव में तो वह परस्त्री ही है। उसका सेवन करने से व्रतभंग होता है। इस प्रकार भंगाभंग रूप होने से इत्वरपरिग्रहा का सेवन अतिचार रूप है। दूसरों के द्वारा किराया आदि देकर अपनाई गई वेश्या परिगृहीता कहलाती है। इससे विपरीत अपरिगृहीता है। अर्थात् किराया देकर जिसे किसी ने न अपनाई हो ऐसी वेश्या, जिसका पति मर चुका है ऐसी स्वैरिणी अथवा अनाथ कुलांगना स्त्री का सेवन (ii) अपरिगृहीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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