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________________ १३४ द्वार ६ रहने से मृषोपदेश भी अतिचार ही माना जाता है। इसी तरह माया-प्रधान शास्त्र का अध्यापन भी अतिचार रूप ही है ॥ २७५ ॥ ३. स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत - चोरी का त्याग करना तीसरा व्रत है। इसके पाँच अतिचार हैं। १. चौरानीत, २. चौर प्रयोग, ३. कूटमान-तुला, ४. रिपुराज्य व्यवहार तथा ५. सदृशयुति अर्थात् मिलावट। (i) चौरानीत चोरों द्वारा लाये गये सुवर्ण, वस्त्र आदि को मूल्य से खरीदना अथवा मुफ्त में लेना चौरानीत नामक अतिचार है । यद्यपि चुराई हुई वस्तु को खरीदने वाला भी चोर ही है अत: इससे व्रतभंग ही माना जाता है तथापि 'मैंने तो व्यापार किया है, चोरी नहीं की' इस प्रकार व्रत की अपेक्षा रखने से यह अतिचार ही है। (ii) चौर प्रयोग - चोरों को चोरी के लिए प्रेरित करना कि जाओ, चोरी करो अथवा चोरों को छुरी, कर्तरी आदि साधन देना या बेचना चौर प्रयोग है। 'मैं न चोरी करूँगा, न दूसरों से करवाऊँगा,' इस प्रकार की प्रतिज्ञापूर्वक व्रत लेकर चोरी की प्रेरणा देना व्रत भंग का कारण है। पर स्वयं चोरी न करने से व्रत की भी अपेक्षा है। ऐसी स्थिति में यह अतिचार ही है। चोरों को यह कहना कि मैं तुम्हें भोजनादि दूँगा....आपके द्वारा चुराई हुई वस्तु मैं खरीदूंगा....इस प्रकार चोरों को प्रेरित करम पर स्वयं चोरी न करना इसमें व्रत की आंशिक अपेक्षा है। (iii) कूटमान तुला - जिससे वस्तु-धान्यादि मापा जाता है, वह मान है, जैसे सेर, आधा सेर, पसली आदि। तुला अर्थात् जिससे तोला जाय, तकड़ी आदि । अर्थात् तौल-माप झूठा करना । जैसे, देते समय कम देना, लेते समय अधिक तौल-माप से लेना (किलो. ग्राम आदि) (iv) रिपुराज्य-व्यवहार - शत्रु के राज्य में जाकर अथवा शत्रु की सेना के साथ व्यापार आदि करना । शत्रुसेना के साथ व्यापार करने की राजा की आज्ञा नहीं है और मालिक की आज्ञा के बिना किसी चीज को ग्रहण करना अदत्तादान है। कहा है—स्वामी, जीव, तीर्थंकर व गुरु के द्वारा अदत्त वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है।' इस प्रकार बिना आज्ञा के चोरी छुपे विरुद्ध राज्य में व्यापारादि करने वाले को चोरी का दण्ड मिलता है अत: इससे व्रत का भंग ही होता है। तथापि 'मैं शत्रु के राज्य में व्यापार कर रहा हूँ, न कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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