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द्वार ६
१३२
किसी को भी नहीं करें क्योंकि तीव्र क्षुधा मृत्यु का कारण बन सकती है। अत: रोगी को छोड़कर शेष सभी को भोजन कराकर
ही श्रावक स्वयं भोजन करे। - इसके भी भेद-प्रभेद बंध की तरह ही हैं। मात्र इतना अन्तर है
(v) अन्नादि निरोध
ले
सापेक्ष
- रोगादि की चिकित्सा के लिए आहार-पानी का अन्तराय करना।
अपराधी को तो मात्र शब्द से ही कहे कि—'आज तुम्हें भोजन आदि नहीं मिलेगा।' भूत-प्रेत आदि की शान्ति के लिये यदि
किसी को उपवास आदि कराना पड़े तो कोई दोष नहीं लगता। प्रश्न-अहिंसाव्रती श्रावक ने मात्र हिंसा का ही त्याग किया है न कि बंध आदि का। अत: बंध आदि करने में क्या दोष है उसे? क्योंकि हिंसा न करने का उसका नियम तो अखण्डित ही है। यदि कहो कि अहिंसाव्रती को बंध आदि करने का भी नियम है तब तो बंध आदि हिंसारूप होने से व्रत को ही खण्डित कर देंगे। दूसरा, बंध आदि को प्रत्याख्येय (व्रतरूप) मानने पर व्रतों की संख्या बढ़ जायेगी क्योंकि अब हर व्रत के साथ अतिचारों के व्रत भी जुड़ेंगे । जैसे अहिंसाव्रत के साथ बंधत्यागरूपव्रत, वधत्यागरूपव्रत आदि भी जुड़ेंगे। इत्यादि दोषों के कारण बंध आदि अतिचार नहीं हो सकते?
उत्तर-आपका कथन सत्य है, क्योंकि अहिंसाव्रती को हिंसा का ही त्याग है बंधादि का नहीं। पर बंध आदि हिंसा के साधक होने से हिंसा के त्याग के साथ उनका भी त्याग हो जाता है।
प्रश्न-यदि हिंसा के त्याग से उनका भी त्याग हो जाता है तब तो बंध-वधादि करने से व्रत भंग ही होगा। ऐसी स्थिति में उन्हें अतिचार रूप कैसे मानोगे?
उत्तर-व्रत का पालन दो प्रकार से होता है-बहिर्वृत्ति से व अन्तर्वृत्ति से। जैसे, 'मैं मारता हूँ' मन में ऐसा कोई भाव नहीं है पर क्रोधावेश में जीवों के प्राणों की परवाह न रखते हुए उन्हें बाँधना अन्तर्वृत्ति से व्रत को भंग करता है। यद्यपि यहाँ जीव मरा नहीं है तथापि दयाहीन व विरति निरपेक्ष प्रवृत्ति होने से व्रत भंग होता है। पर जीव हिंसा न होने से बहिर्वृत्ति से व्रत का पालन भी हो रहा है अत: यह अतिचार रूप ही है। जो व्रतों की संख्या बढ़ने की बात कही, वह भी अयुक्त ही है क्योंकि जहाँ विशुद्ध अहिंसा का पालन होता है वहाँ बंधादि भी नहीं होते, अत: सिद्ध हुआ कि बंधादि अतिचार रूप ही हैं। किसी पर मंत्र, तंत्र आदि के प्रयोग करना भी प्रथमव्रत के अतिचार हैं ।। २७४ ॥ २. स्थूल मृषावाद विरमण व्रत - इसके पाँच अतिचार हैं:-१. सहसा कलंक, २. रहस्य-दूषण, ३.
दारामंत्र भेद, ४. कूटलेख व ५. मृषोपदेश। (i) सहसा कलंक - बिना विचारे किसी पर असद् दोषारोपण करना, जैसे, तूं चोर
___ है....परस्त्रीगामी है इत्यादि। प्रश्न-सहसा कलंक 'असदोषारोपण' रूप होने से दूसरे व्रत का भंग ही करेगा तो इसकी गणना अतिचार में कैसे की?
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