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प्रवचन-सारोद्धार
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अपवाद
- जैसे बिवाई फट गई हो और ठीक करने के लिए चमड़ी आदि
काटना पड़े अथवा रोगादि के कारण शरीर का कोई अवयव
काटना पड़े तो अतिचार नहीं लगता। आवश्यक चूर्णि के अनुसार(i) बंध
-- द्विपद-चतुष्पद जीवों को क्रोधादिवश बाँधना। यह दो प्रकार से
होता है—सार्थक और निरर्थक । निरर्थक बंध तो करना ही नहीं
चाहिये। सार्थक के भी दो भेद हैं-सापेक्ष व निरपेक्ष । सापेक्ष
-- यह बंध द्विपद-चतुष्पद दोनों का होता है। उन्हें ऐसे शिथिल बंधन से बाँधना कि वे चलना, फिरना, उठना, बैठना, आसानी से कर सकें तथा अग्नि आदि के उपद्रव में थोड़े से प्रयास से
डोरी तोड़कर भाग सके। निरपेक्ष
- यह बंध चतुष्पदों का ही होता है। अत्यन्त मजबूत बंधन से
बाँधना। श्रावक को द्विपद-चतुष्पद ऐसे ही रखना चाहिए जिन्हें
बाँधना न पड़े। (ii) छविच्छेद
- भेद-प्रभेद सभी बंध की तरह है। मात्र इतना अन्तर हैसापेक्ष
- गंडस्थल का छेदन करना, घाव आदि को जलाना । निरपेक्ष
- हाथ, पाँव, कान, नाक आदि का निर्दयतापूर्वक छेदन करना। (iii) अतिभारारोपण - द्विपद-चतुष्पद आदि पर शक्ति उपरान्त भार लादना । सर्वप्रथम
तो श्रावक को ऐसा धन्धा ही नहीं करना चाहिये जिसमें द्विपद-चतुष्पद के ऊपर भार लादना पड़े। यदि आजीविका का
दूसरा कोई साधन न हो तो इतना ध्यान अवश्य रखे कि• मनुष्य पर उतना ही भार लादे जितना कि वह आसानी से उठा सके व उतार सके। • पशु पर भी उतना ही भार लादना चाहिये जितना कि वह आसानी से उठा सकता हो तथा
उस पर लादना उचित माना जाता हो।
• हल, गाड़ी आदि में जोते हुए बैल आदि को उचित समय पर छोड़ देना चाहिये। (iv) वध
- प्रहार करना। यह दो प्रकार का है-निरपेक्ष व सापेक्ष ।
- निर्दयता पूर्वक प्रहार करना। सापेक्ष
- सामान्यत: श्रावक अनुशासित स्वजन-परिजन वाला होता है तथापि
कोई अविनीत निकल जाय तो उसे दण्डित करना पड़ता है। यदि दण्ड देना पड़े तो मर्मस्थान को छोड़कर लता या चाबुक से उस पर हल्का सा प्रहार करे। आहार-पानी का अन्तराय
निरपेक्ष
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