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द्वार ६
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उत्तर---प्रायश्चित्त से लेकर उत्सर्ग तक के अनुष्ठान को लोक तपरूप नहीं समझते। कुतीर्थिक लोक इन्हें भाव से स्वीकार नहीं करते । मोक्ष प्राप्ति के अन्तरंग कारण हैं। आत्मिक विकारों को तपाने वाले हैं। अन्तर्मुखी सन्तों एवं भगवन्तों के द्वारा ही ज्ञेय हैं अत: इन्हें आभ्यन्तर तप कहा जाता है।
प्रश्न-इनके अतिचार कैसे होते हैं ?
उत्तर-तप के १२ भेदों का विपरीत, न्यूनाधिक या अव्यवस्थित आचरण करना ही अतिचार है और वे १२ हैं। वीर्याचार के ३ अतिचार-मन-वचन व काया की पाप युक्त प्रवृत्तियाँ वीर्याचार के अतिचार हैं। २७०-२७० ॥ सम्यक्त्व के ५ अतिचार१. शंका
- जिनेश्वर देव द्वारा प्रणीत, अप्रत्यक्ष धर्मास्तिकायादि पदार्थों के विषय में संदेह करना कि ये पदार्थ हैं या नहीं? इसके दो भेद
हैं-(i) देश-शंका व (ii) सर्वशंका। (i) देश शंका - भगवान के द्वारा प्रणीत किसी एक पदार्थ के विषय में शंका
करना जैसे, जीव तत्त्व है, किन्तु वह सर्वगत है या असर्वगत?
सप्रदेशी है या अप्रदेशी? (i) सर्वशंका - सम्पूर्ण पदार्थ के विषय में शंका करना, जैसे, धर्मास्तिकाय है
या नहीं? दोनों ही प्रकार की शंका वीतराग के वचनों में अविश्वास पैदा करने वाली होने से सम्यक्त्व को दूषित करती है अत: अतिचार रूप है।
आप्त-पुरुषों के द्वारा बताये गये पदार्थों की प्रामाणिकता का आधार छद्मस्थों के प्रमाण नहीं हो सकते क्योंकि वे स्वत: असन्दिग्ध हैं।
• मति-मन्दता के कारण, • तथाविध आचार्यों के अभाव से, • जानने योग्य पदार्थों की गहनता के कारण, • ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से, • हेतु और उदाहरण के अभाव में,
यदि कोई बात समझ में नहीं आती है तो भी मतिमान आत्मा सर्वज्ञ के वचन में शंका नहीं करते क्योंकि अनुग्रह-परायण, राग, द्वेष और मोह के विजेता ऐसे जिनवर कभी झूठ नहीं बोलते।।
• सूत्रोक्त एक अक्षर के प्रति भी अश्रद्धा मिथ्यात्व का कारण है अत: जिनेश्वर देव के सभी
वचन प्रमाण हैं। उनके प्रति जरा सा भी संदेह अविश्वास का कारण होने से संसार-वर्धक होता है।
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