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________________ प्रवचन - सारोद्धार २. कांक्षा (i) सर्वतः (ii) देशत: - अन्य दर्शनों में से किसी एक दर्शन की चाह रखना देशतः कांक्षा । जैसे बौद्ध भिक्षुओं का जीवन इतना कठिन नहीं बताया जितना कि जैन मुनियों का । मृदुशय्या पर शयन करना, प्रात:काल उठकर पेय पान करना, मध्याह्न में मनोज्ञ भोजन करना, अपराह्न में दाख / इक्षुखण्ड आदि खाना। इस प्रकार की चर्या से अन्त में मोक्ष मिलता है, ऐसा बुद्ध ने देखा, यह भी ठीक ही है । इस प्रकार की कांक्षा वास्तव में जिन धर्म के प्रति अविश्वास पैदा करने वाली होने से सम्यक्त्व को दूषित करती है। I ३. विचिकित्सा ५. परतीर्थिक उपसेवन Jain Education International १२९ अन्य दर्शनों की चाह करना । इसके दो प्रकार हैं I सभी पाखण्डी धर्मों की आकांक्षा करना सर्वतः कांक्षा है । जैसे परिव्राजक, ब्राह्मण, आदि विषय-सुख भोगते हुए भी सद्गति के भागी बनते हैं, अत: उनका धर्म भी करने योग्य है । “जो लोकमार्गगामी होते हैं, उन्हें फल प्राप्ति होती है। उतना धैर्य, संघयण बल आदि न होने से हमें वैसी फल प्राप्ति नहीं होती ।" विचिकित्सा श्रद्धारूप सम्यक्त्व को दूषित करती है । प्रश्न- इस प्रकार शंका और विचिकित्सा में कोई अन्तर नहीं लगता ? समाधान- शंका पदार्थों के द्रव्य-गुण से सम्बन्धित है और विचिकित्सा धर्म (क्रिया) फल विषयक है अथवा विचिकित्सा का अन्य अर्थ भी है । साधु के आचरण की निन्दा करना । उनके प्रति घृणा का भाव रखना आदि। जैसे—ये मुनि लोग स्नान नहीं करते, अतः ये बड़े गंदे और मलिन हैं। अगर ये प्रासुक जल से स्नान करें तो क्या दोष है ? ऐसी विचिकित्सा वीतराग धर्म के प्रति अश्रद्धा का कारण होने से सम्यक्त्व को दूषित करती है । ४. अन्यतीर्थिक प्रशंसा धर्म सम्बन्धी फल के प्रति संदेह रखना। मैं इतना दुष्कर तप कर तो रहा हूँ, किन्तु इसके फलस्वरूप मुझे स्वर्ग सुख की प्राप्ति होगी या नहीं ? या यह 'तपोऽनुष्ठान' क्लेश रूप ही होगा ? कर्मनिर्जरा होगी या नहीं ? क्रिया दोनों प्रकार की देखी जाती है, सफल और निष्फल, जैसे किसान की खेती की क्रिया । वैसे धर्म क्रिया भी दोनों तरह की हो सकती है। इस प्रकार का चिन्तन नहीं करना चाहिये। कहा है कि— अन्य दर्शनियों की प्रशंसा करना । जैसे, अहो ! ये बौद्ध आदि राज-पूज्य हैं, इनका बड़ा सत्कार और सम्मान है। ये महान् विद्वान और गुण सम्पन्न हैं । इस प्रकार इनकी प्रशंसा करने से सम्यक्त्व दूषित बनता है । अन्य दर्शनियों के साथ एक स्थान में रहना । इससे परस्पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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