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प्रवचन-सारोद्धार
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(iv) सभी को विचलित करने वाले तथा परम्परया हिंसादि पाप कराने वाले शब्द, रूप, रस, गंधादि विषयों के पोषक द्रव्यों की रक्षा हेतु सतत चिंतन करना । हिंसा, झूठ, चोरी आदि में बार-बार
प्रवृत्त होना। ये नरक गति के कारण हैं। ३. धर्म ध्यान
(i) क्षमादि दशविध धर्म से अनुप्राणित जिनाज्ञा का बार-बार चिंतन करना। (ii) राग-द्वेष, विषय-कषायवश जीव को होने वाली हानि का चिंतन करना। (iii) शुभ-अशुभ, कर्मफल का सतत चिंतन करना। (iv) द्वीप, समुद्र आदि पदार्थों के संस्थान, रचना-आकार आदि का चिंतन करना। जिनप्रणीत तत्त्वों के प्रति श्रद्धा-आस्था होना, इसके लक्षण हैं।
यह देवगति का कारण है। ४. शुक्ल-ध्यान - आगमानुसारी अनेक नय सापेक्ष किसी एक द्रव्य की उत्पत्ति,
स्थिति, विनाश आदि पर्यायों के चिंतन द्वारा अष्टविध कर्ममल को अथवा शोक को दूर करने वाला ध्यान । अहिंसा, असंमोह, विवेक व उत्सर्ग आदि लक्षणों से युक्त
शुक्लध्यान मोक्ष-फल का साधक है। • धर्म-शुक्लध्यान, निर्जरा का हेतु होने से तप है।
• आर्त्त-रौद्र ध्यान कर्मबंध का हेतु होने से तप नहीं है। १२. उत्सर्ग
- त्यागने योग्य का त्याग करना । वह त्याग दो प्रकार का है—बाह्य
व आभ्यन्तर। (i) बाह्य-बारह प्रकार की उपधि से अतिरिक्त का त्याग करना, अनेषणीय व दोषमिश्रित आहार-पानी का त्याग करना बाह्य उत्सर्ग है। (ii) आभ्यन्तर-कषायों का व अन्त समय में शरीर का त्याग
करना आभ्यन्तर उत्सर्ग है। प्रश्न-प्रायश्चित्त के भेद के रूप में 'उत्सर्ग' आ जाता है, पुन: उसे तप में ग्रहण क्यों किया?
उत्तर-प्रायश्चित्तगत उत्सर्ग अतिचारों को विशुद्धि के लिए है, जबकि तप रूप उत्सर्ग सामान्यत: कर्मनिर्जरा के लिए है अत: यहाँ पुनरुक्त दोष नहीं है।
प्रश्न-प्रायश्चित्तादि छ: को आभ्यन्तर तप क्यों कहा जाता है ?
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