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द्वार ६
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(iii) परावर्तना - संदेह का निराकरण करके स्पष्ट किया हुआ श्रुत पुन: विस्मृत न
__हो जाय इस हेतु बार-बार उनका परावर्तन करना। (iv) अनुप्रेक्षा - (I) सस्वर सूत्र का पठन करना, (II) अर्थ विस्मृत न हो जाय
इसलिये बार-बार अर्थ का चिन्तन करना। (v) धर्मकथा - जिस श्रुत का बार-बार अभ्यास किया है, उसे आधार बनाकर
दूसरों को उपदेश देना। ११. ध्यान
-- अन्तर्मुहूर्त तक चित्त को किसी एक विषय या वस्तु में स्थिर
करना छास्थ का ध्यान है। केवली का ध्यान योग-निरोध रूप
होता है। ध्यान ४ प्रकार का है। आर्त्त, रौद्र, धर्म व शुक्ल। १. आर्तध्यान
इष्ट वियोग व अनिष्ट संयोगजन्य चिंतन । () ऋत = दुःख, उसके निमित्त से होने वाला ध्यान अथवा पीड़ित प्राणी का ध्यान आर्त्त ध्यान है। अमनोज्ञ शब्दादि, अनिच्छित वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति का संयोग होने पर उनके वियोग का एवं भविष्य में पुन: उनका संयोग न हो ऐसा चिन्तन करना-आर्त्तध्यान है। (ii) रोगादि कष्ट आने पर यह जल्दी से दूर हो व भविष्य में पुन: न आवे ऐसा चिन्तन करना। (iii) इच्छित विषय, वस्तु, व्यक्ति परिस्थिति तथा साता वेदनीय, का सदा संयोग बना रहे, कभी वियोग न हो ऐसा चिन्तन करना।
(iv) देव, इन्द्र, चक्रवर्ती पद की कामना करना। • शोक, आक्रन्दन, स्वदेहताड़न, विलाप वगैरह आर्त-ध्यान के लक्षण हैं और यह तिर्यंच गति
का कारण है। २. रौद्र ध्यान - दूसरों को रुलाना = 'रुद्र' तथा रुलाने का चिन्तन “रौद्र ध्यान"
अर्थात् हिंसादि में परिणत आत्मा का प्रयत्न रौद्र ध्यान है। इसके चार भेद हैं(i) दूसरे जीवों की ताड़ना, तर्जना, वध, वेध, बंधन, दहन, मारने तथा निशानादि गुदवाने का चिन्तन करना। (ii) झूठ, चोरी, चुगली, हिंसादि का सतत ध्यान करना। (iii) तीव्र क्रोध व अतिलोभवश जीवहिंसा, परलोक में होने वाली हानि की परवाह किये वगैर परद्रव्यहरण करने का चिन्तन करना।
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