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प्रवचन - सारोद्धार
चारित्र विनय
(vii) औपचारिक विनय
९. वैयावच्च
१०. स्वाध्याय
स्वाध्याय के ५ प्रकार --
(i) वाचना
(ii) पृच्छना
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वाले), क्रियावान, मति आदि ५ ज्ञान की भक्ति, बहुमान व प्रशंसा करना (वर्णवाद) ।
भक्ति
= बाह्य सेवा - सत्कार ।
बहुमान आन्तरिक प्रीति । वर्णवाद गुण-कीर्तन | सामायिकादि चारित्रधर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखना....काया से उनका पालन करना वचन से चारित्रधर्म की प्ररूपणा करना....आचार्यादि का मन-वचन-काया से विनय करना... तथा तीनों योगों की अशुभ प्रवृत्ति को रोककर उन्हें सदा शुभ में प्रवृत्त रखना ।
ऐसी प्रवृत्ति करना जिससे गुरु को शाता पहुँचे । यह सात प्रका का है— (i) अभ्यास-स्थान -सूत्रादि के अभ्यास के लिए गुरु के पास रहना । (ii) छंदानुवर्तन—– गुरु की इच्छा का अनुसरण करना । (iii) कृतप्रतिकृति — गुरु सूत्रार्थ देकर हमें प्रत्युपकृत करेंगे इस भावना से गुरु को आहारादि देना, मात्र निर्जरा के लिये ही नहीं।(iv) कार्यनिमित्तकारण – मुझे गुरु ने श्रुत का अध्ययन करवाया है इसलिये इनका विशेष रूप से विनय करना चाहिए अथवा पुन: विशेष रूप से गुरु मुझे सूत्रार्थ का अध्ययन करायेंगे इस हेतु आहारादि देना, उनकी आज्ञा का पालन करना आदि । (v) दुःखार्त्तगवेषण - रोगादि से पीड़ित गुरु की औषधि आदि के द्वारा सेवा-शुश्रूषा करना । (vi) देशकालज्ञान- देश - काल के अनुरूप गुरु के प्रति व्यवहार करना । (vii) सर्वार्थ अनुमति – सदा गुरु के अनुकूल रहना अथवा गुरु का ५२ प्रकार का विनय करना । (६५वें द्वार में देखें) । धर्म-साधन के लिए विधिपूर्वक अन्न, वस्त्र, पात्र इत्यादि का दान देना ।
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काल- वेला का त्याग करते हुए स्वाध्याय करना । जिस पौरुषी में जो पढ़ने का कहा है उसे उसी पौरुषी में पढ़ना, जैसे प्रथम पौरुषी में सूत्र पढ़ना व द्वितीय पौरुषी में अर्थ पढ़ना ।
शिष्य को अध्ययन कराना ।
पढ़े हुए श्रुत में संदेह पैदा होने पर पुनः पूछना |
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