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द्वार ६
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(iii) योग-संलीनता - मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकते हुए उन्हें शुभ
प्रवृत्ति में लगाना। (iv) विविक्तशय्यासनता- स्त्री, पशु, नपुंसक आदि से रहित स्थान में वास करना । सोने-बैठने
के लिए एषणीय पाट आदि ग्रहण करना। • पूर्वोक्त सभी तप बाह्य हैं क्योंकि ये द्रव्यादि सापेक्ष हैं। प्राय: इनमें शरीर को सहन करना
पड़ता है। सामान्यजन भी इन्हें तपरूप मानते हैं तथा अन्यदर्शनी भी इन्हें अपनी कल्पना के
अनुसार करते हैं ।। २७० ॥ ७. प्रायश्चित्त
- चित्त = जीव, प्राय: = अधिकांश अर्थात् मूल-उत्तर गुण
सम्बन्धी अतिचारों के कारण कर्ममल से मलिन बनी हुई आत्मा
को निर्मल बनाने वाला तप प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त के दस प्रकार - आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, कायोत्सर्ग, तप, छेद, मूल,
अनवस्थाप्य और पारांचिक । इनका विवेचन ९८वें द्वार में द्रष्टव्य
।
८. विनय
- जिसके पालन से आठ कर्म दूर होते हैं वह विनय-तप है। यह
सात प्रकार का है(i-v) ज्ञान विनय मति आदि पाँच प्रकार के ज्ञान की भक्ति, बहुमान, ज्ञान द्वारा
प्ररूपित पदार्थों में श्रद्धा, ज्ञान को विधि पूर्वक ग्रहण करना तथा
उसका सतत अभ्यास करना ज्ञान-विनय है। (v) दर्शन विनय - दर्शन विनय दो प्रकार का है
(i) दर्शनगुणाधिक की शुश्रूषा करना, (ii) उनकी किसी प्रकार
की आशातना न करना। शुश्रूषा विनय
दर्शनी का सत्कार, अभ्युत्थान, सम्मान, आसनाभिग्रह, आसनदान, कृतिकर्म, अञ्जलिग्रह आदि करना । दर्शनी आ रहे हों तो उनके सम्मुख जाना, बैठे हों तो उनकी सेवा करना, जा रहे हों तो
उनका अनुगमन करना। सत्कार = स्तवन, नमन आदि । अभ्युत्थान = विनय करने योग्य आत्माओं को देखकर आसन छोड़कर खड़े हो जाना। सन्मान = वस्त्र-पात्र आदि देकर सम्मान करना। आसनाभिग्रह = गुणाधिक या गुरु के आने पर आसन लाकर विनती करना कि “आप इस पर बिराजिये।” आसनदान = गुरु या गुणाधिक एक स्थान से दूसरे स्थान पर पधारे तब उनके पीछे आसन लेकर जाना । कृतिकर्म = वन्दन । अञ्जलिग्रह = हाथ जोड़ना। अनाशातना विनय - आशातना त्यागरूप विनय १५ प्रकार का है। तीर्थंकर, धर्म,
आचार्य, वाचक, स्थविर, कुल, गण, संघ, सांभोगिक (एक समाचारी
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