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प्रवचन-सारोद्धार
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कालत: ..
कहा है
भावत:
घर से, स्वग्राम या परग्राम से, अमुक मोहल्ले से ही भिक्षा लूँगा। दाता एक पाँव देहली के भीतर व एक पाँव देहली के बाहर रखकर भिक्षा देगा तो ही लूँगा। स्वगाँव, परगाँव या इतने घरों से तथा भिक्षागमन की जो आठ भूमि है पेटा, अर्द्ध- पेटा आदि
उसमें से किसी एक भूमि से भिक्षा ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं। - पूर्वाह्न आदिकाल में, सभी भिक्षुओं के द्वारा भिक्षा ले आने के
बाद भिक्षा लेने जाऊँगा। भिक्षाकाल से पर्व. भिक्षाकाल के बाद में अथवा भिक्षाकाल में जो आहारादि मिलेगा वही लूँगा अन्यथा नहीं लूँगा। इस प्रकार काल विषयक अभिग्रह धारण करना। भिक्षा देने वाले और लेने वाले को यत्किचित् भी अप्रीति न हो इसलिये भिक्षाकाल से पूर्व अथवा पश्चात् गोचरी के लिए भ्रमण न करे, प्रत्युत पूर्वकर्म-पश्चात्कर्म आदि दोषों से बचने के लिए भिक्षाकाल में ही भ्रमण करे। - दाता हँसता, गाता या रोता हुआ भिक्षा देगा तो ही लूँगा....बन्धन
बद्ध देगा तो ही लूँगा, ऊपर उठाये हुए भाजन से अथवा नीचे रखे हुए भाजन से भिक्षा देगा तो ही लूँगा अन्यथा नहीं। दूर रहकर, समीप आकर, पराङ्मुख होकर, सुशोभित होकर या ऐसे
ही भिक्षा देगा तो लँगा। – विशिष्ट रस वाले व विकार के हेतुभूत दूध, घी आदि का त्याग
करना। - वीरासन, उत्कटुकासन, लोच आदि परीषहों का शास्त्रसंमत विधि से सहन करना। क्योंकि ये भव-वैराग्य के निमित्त हैं। काययोग का निरोध, जीवों पर दया, परलोकदृष्टि व दूसरों का बहुमान ये वीरासनादि के गुण हैं। शारीरिक मूर्छा का त्याग, पूर्वकर्म, पश्चात्कर्म का परिहार, सहिष्णुता का विकास व नरकादि के दुःख का चिन्तन करने से संसार से वैराग्य होता है। ये लोच
के गुण हैं। - इन्द्रिय आदि का संगोपन । इसके ४ प्रकार हैं- पाँच इन्द्रियों के अच्छे बुरे विषयों के प्रति राग-द्वेष न करना। - उदित कषायों को निष्फल करना तथा सत्तागत कषायों को
तथाविध अध्यवसायों के द्वारा उदय में न आने देना।
४. रसत्याग
५. कायक्लेश
६.संलीनता
(i) इन्द्रिय संलीनता (ii) कषाय-संलीनता
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