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५. अनिह्नवण
६. व्यंजन
७. अर्थ
पढ़ना ।
जिसका जो अर्थ है, सम्यक् उपयोगपूर्वक उसका वही अर्थ करते हुए सूत्र पढ़ना ।
८. तदुभय
शब्द व अर्थ इन दोनों को सम्यक् उपयोगपूर्वक संबद्ध करते हुए पढ़ना ।
यह आठ प्रकार का श्रुतज्ञान का आचार है। इससे विपरीत आचरण अतिचार है || २६७ ॥ दर्शनाचार के आठ अतिचार
१. निः शंकित
२. नि. कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा
४. अमूढ़ता
५. उपबृंहणा
६. स्थिरीकरण
७. वात्सल्य
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द्वार ६
के लिए किया जाने वाला तप विशेष उपधान है अर्थात् जिस सूत्र, अध्ययन व उद्देशक को पढ़ने के लिये जो तप बताया गया है, उस सूत्रादि को उस तप पूर्वक पढ़ना उपधान है। क्या पढ़ रहे हैं ? और किससे पढ़ रहे हैं ? इन तथ्यों का अपलाप (छुपाना) न करते हुए पढ़ना । अभिमानवश अपनी लघुता के डर से श्रुतव श्रुतदाता का अपलाप करते हुए आगमादि नहीं पढ़ने चाहिये ।
अक्षर, शब्द, वाक्य वगैरह का सम्यक् उपयोग रखते हुए सूत्रादि
जिन वचन के प्रति सन्देह रहित । अन्य दर्शन के प्रति रुचि रहित ।
युक्ति व आगमसिद्ध धर्मक्रियाओं के फल में सन्देह न रखना। निर्विचिकित्सा के स्थान पर 'निर्विद्वत्जुगुप्सा' ऐसा भी पाठ है । उसका अर्थ है कि मल मलिन गात्र वाले साधु-साध्वियों को देखकर 'ये गन्दे हैं,' 'ये घृणित हैं,' इस प्रकार की जुगुप्सा न
करना ।
तप - विद्या, मंत्र-तंत्र की विशिष्टता वाले कुतीर्थियों की ऋद्धि-सिद्धि देखकर सम्यक् श्रद्धा से विचलित न होना ।
किसी के तप, वैयावच्च, सेवा आदि सद्गुणों की प्रशंसा करके उनके सद्गुणों को उत्तरोत्तर बढ़ाना ।
धर्म-मार्ग में अस्थिर व्यक्ति को मधुर वचनों से पुन: धर्म में स्थिर करना ।
जिनकी देव गुरु धर्म सम्बन्धी मान्यता समान है, ऐसे स्वधर्मियों का भोजन वस्त्रादि से सम्मान करना ।
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