SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० ५. अनिह्नवण ६. व्यंजन ७. अर्थ पढ़ना । जिसका जो अर्थ है, सम्यक् उपयोगपूर्वक उसका वही अर्थ करते हुए सूत्र पढ़ना । ८. तदुभय शब्द व अर्थ इन दोनों को सम्यक् उपयोगपूर्वक संबद्ध करते हुए पढ़ना । यह आठ प्रकार का श्रुतज्ञान का आचार है। इससे विपरीत आचरण अतिचार है || २६७ ॥ दर्शनाचार के आठ अतिचार १. निः शंकित २. नि. कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढ़ता ५. उपबृंहणा ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य Jain Education International - - द्वार ६ के लिए किया जाने वाला तप विशेष उपधान है अर्थात् जिस सूत्र, अध्ययन व उद्देशक को पढ़ने के लिये जो तप बताया गया है, उस सूत्रादि को उस तप पूर्वक पढ़ना उपधान है। क्या पढ़ रहे हैं ? और किससे पढ़ रहे हैं ? इन तथ्यों का अपलाप (छुपाना) न करते हुए पढ़ना । अभिमानवश अपनी लघुता के डर से श्रुतव श्रुतदाता का अपलाप करते हुए आगमादि नहीं पढ़ने चाहिये । अक्षर, शब्द, वाक्य वगैरह का सम्यक् उपयोग रखते हुए सूत्रादि जिन वचन के प्रति सन्देह रहित । अन्य दर्शन के प्रति रुचि रहित । युक्ति व आगमसिद्ध धर्मक्रियाओं के फल में सन्देह न रखना। निर्विचिकित्सा के स्थान पर 'निर्विद्वत्जुगुप्सा' ऐसा भी पाठ है । उसका अर्थ है कि मल मलिन गात्र वाले साधु-साध्वियों को देखकर 'ये गन्दे हैं,' 'ये घृणित हैं,' इस प्रकार की जुगुप्सा न करना । तप - विद्या, मंत्र-तंत्र की विशिष्टता वाले कुतीर्थियों की ऋद्धि-सिद्धि देखकर सम्यक् श्रद्धा से विचलित न होना । किसी के तप, वैयावच्च, सेवा आदि सद्गुणों की प्रशंसा करके उनके सद्गुणों को उत्तरोत्तर बढ़ाना । धर्म-मार्ग में अस्थिर व्यक्ति को मधुर वचनों से पुन: धर्म में स्थिर करना । जिनकी देव गुरु धर्म सम्बन्धी मान्यता समान है, ऐसे स्वधर्मियों का भोजन वस्त्रादि से सम्मान करना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy