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द्वार
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७. कायोत्सर्ग में थूकना। ८. शरीर का अनावश्यक स्पर्श करना। ९. अङ्गोपाङ्ग अव्यवस्थित रखकर कायोत्सर्ग करना। १०. अविधि से कायोत्सर्ग करना। ११. व्रत की अपेक्षा से रहित कायोत्सर्ग करना।
• पूर्वोक्त दोषों से रहित कायोत्सर्ग करना चाहिये। ऐसी जिनाज्ञा है। अपवाद
- शरीर पर प्रकाश पड़ता हो तो कमली आदि ओढ़ने से, वर्षा
आदि की बूंदे गिरती हों तो कायोत्सर्ग में एक स्थान से दूसरे
स्थान पर जाने से कायोत्सर्ग भङ्ग नहीं होता। प्रश्न—‘णमो अरिहंताणं' बोलकर कायोत्सर्ग पारकर ही प्रावरण आदि का ग्रहण क्यों नहीं करते?
उत्तर—'णमो अरिहंताणं' बोलकर काउस्सग्ग पालना, काउस्सग्ग की पूर्णता नहीं है। पर जितने श्वासोच्छ्वास का काउस्सग्ग है, उतने श्वासोच्छ्वास पूर्ण होने के बाद ही नमस्कार बोलना, काउस्सग्ग की पूर्णता है। उतने समय के बाद यदि 'नमस्कार' बिना बोले काउस्सग्ग पाल ले तो काउस्सग्ग भङ्ग हो जाता है। वैसे काउस्सग्ग पूर्ण हुए बिना 'नमस्कार' बोलने पर भी काउस्सग्ग भङ्ग होता है। बिल्ली, चूहा आदि बीच से निकलता हो और आगे-पीछे सरके तो भी कायोत्सर्ग भङ्ग नहीं होता। राजभय, चोरभय की स्थिति में, स्वयं या दूसरे को सांप आदि डसा हो ऐसे समय में अपूर्ण कायोत्सर्ग पाले तो भी कायोत्सर्ग भङ्ग नहीं होता ॥२६२ ।।
६. द्वार:
व्रत-अतिचार
पण संलेहण पन्नरस कम्म नाणाइ अट्ठ पत्तेयं । बारस तव विरियतिगं पण सम्म वयाई पत्तेयं ॥२६३ ॥ इहपरलोयासंसप्पओग मरणं च जीविआसंसा। कामे भोगे व तहा मरणंते पंच अइआरा ॥२६४॥ भाडी फोडी साडी वणअंगारस्सरूवकम्माई । वाणिज्जाणि अ विसलक्खदंतरसकेसविसयाणि ॥२६५ ॥ दवदाण जंतवाहण निल्लंछण असइपोससहियाणि । सजलासयसोसाणि अ कम्माइं हवंति पन्नरस ॥२६६ ॥ काले विणए बहुमाणोवहाणे तहा अनिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो ॥२६७ ॥
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