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द्वार ५
१५. भूताविष्ट व्यक्ति जैसे सिर हिलाता है वैसे सिर हिलाते हुए काउस्सग्ग करना शीर्षोत्कंपित दोष है। १६. अपने सम्मुख होने वाले छेदन-भेदन को बन्द करने के लिये मूक की तरह काउस्सग्ग में हूं हूं करना मूक दोष है ।। २५९ ।।
१७. काउस्सग्ग में आलापकों की गणना करने के लिये अङ्गली घुमाना, भौहे चलाकर संकेत करना, भौहे नचाना अङ्गलीभ्रू दोष है ।। २६० ।।
१८. शराबी की तरह बड़-बड़ करते हुए काउस्सग्ग करना वारुणी दोष है। १९. बन्दर की तरह होठ फड़फड़ाते हुए काउस्सग्ग करना प्रेक्षा दोष है।। २६१॥
काउस्सग्ग करते हुए, पंडित आत्माओं के द्वारा जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्रतिषिद्ध इन १९ दोषों का पूर्णरूपेण अवश्य परित्याग करना चाहिये ।। २६२ ।।
-विवेचनस्थान, मौन व ध्यान के अतिरिक्त (श्वासोच्छ्वास आदि क्रियाओं को छोड़कर जब तक ‘णमो अरिहंताणं' बोलकर कायोत्सर्ग पूर्ण न करें तब तक) अन्य सभी क्रियाओं का त्याग करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग दो हेतु से होता है- (१) चेष्टाजन्य और (२) अभिभवजन्य । (१) चेष्टाजन्य
---- गमनागमनादि क्रिया के बाद इरियावही करके कायोत्सर्ग करना। (२) अभिभवजन्य
- देव-दानव आदि कृत उपसर्ग के निवारण हेतु कायोत्सर्ग करना। • दोष रहित कायोत्सर्ग निर्जरा का हेतु है, अत: १९ दोषों से रहित कायोत्सर्ग करना चाहिये।
वे दोष निम्न हैं१. घोटक
- घोड़े की तरह एक पाँव का घुटना झुकाकर खड़े रहना। २. लता
- हवा से लता हिलती है, वैसे कायोत्सर्ग में शरीर हिलाना ।।२४९ ।। ३. स्तंभकुड्य
- कायोत्सर्ग करते समय खंभे या भीत से टिक कर खड़े रहना। ४. माल
- छत से सिर लगाकर खड़े रहना ॥२५० ।। ५. शबरी
- नग्न भीलनी जिस प्रकार अपने गुप्तांग को हाथ से छुपाने का
प्रयास करती है वैसे हाथ रखकर कायोत्सर्ग करना ॥२५१ ॥ ६. वधू
- कुलवधू की तरह सिर झुकाकर कायोत्सर्ग करना। ७. निगड़
- बेड़ी पहने हुए की तरह दोनों पैर दूर-दूर या एकदम नजदीक
रखकर कायोत्सर्ग करना ॥२५२ ।। ८. लम्बोत्तर
- नाभि से ऊपर और घुटने से नीचे तक चोलपट्टा पहन कर
कायोत्सर्ग करना ॥२५३ ।। ९. स्तन
- कायोत्सर्ग के समय डांस, मच्छर आदि के दंश के भय से
चोलपट्टे से छाती ढकना अथवा अज्ञानता से ऐसा करना ।।२५४ ।। १०. ऊर्श्विका
- (i) बाह्य ऊर्ध्विका:-एड़ी मिलाकर पाँवों के पजे दूर रखकर
गाड़ी की उध की तरह कायोत्सर्ग करना।
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