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प्रवचन - सारोद्धार
अपवाद - विविध तपश्चर्या करने से जिनका शरीर क्षीण हो चुका हो, पेट रूक्ष हो गया हो, स्वाध्याय, अध्ययन आदि करने में समर्थ न हो, ऐसी आत्मा यदि निवियातों का उपयोग करे तो दोष नहीं है । प्रत्युत इससे कर्म-निर्जरा होती है। कहा है कि 'निवियातों का उपयोग अनिवार्य संयोगों में ही करना चाहिये सामान्य परिस्थितियों में नहीं । जिनका शरीर एकदम क्षीण हो गया हो, उन्हीं को निवियाता ग्रहण करना कल्पता है, परन्तु जिन्होंने इन्द्रियों के निग्रह लिये विगय का त्याग किया है, उन्हें निवियाता ग्रहण करना नहीं कल्पता । जो विगय का त्याग करके स्निग्ध, मधुर एवं उत्कृष्ट द्रव्य रूप निवियातों का भक्षण करते हैं, उन्हें विगय त्याग का अति- तुच्छ फल मिलता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो सामान्य कारण में भी निवियातों का उपयोग करते हैं, तिल के लड्डू, तिलपट्टी, खोपरा, दही का मट्ठा, खीर, घी के पक्वान्न, मालपूआ, दूध, दही, करबा, पेया आदि का निष्कारण सेवन करते हैं, पर जन्म, जरा मृत्यु से भयंकर संसारवास से उद्विग्न चित्तवाले गीतार्थों को यह बात कदापि इष्ट नहीं है। दुःख रूपी दावानल से संतप्त जीवों को भव रूपी जंगल से पार करने में जिनाज्ञा के अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है । विकृति विकार पैदा करती है । उससे मोहनीय कर्म की उदीरणा होती है । मोह की उदीर्णावस्था * में चित्त को कितना भी वश में रखा जाये, किन्तु वह अकार्य में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रहता । दावानल से संतप्त कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो प्रतीकार के साधन रहते हुए भी उसका प्रतीकार नहीं करे | मोहाग्नि से संतप्त व्यक्ति के लिये भी यही समझना । दुर्गति से डरने वाले मुनि को विगय या निवियाता का उपयोग नहीं करना चाहिये । कारण विकृतियाँ विकारोत्पादक होने से अवश्य दुर्गति में ले जाती हैं ।। २३५ ॥
३२ अनन्तकायिक- कन्दजातिरनन्तकायिका इति
कन्द - वृक्ष का भूमिगत अवयव सामान्यतः कंद कहलाता है । यहाँ 'कंद' आर्द्र लेना चाहिये ।
शुष्क कंद निर्जीव होने से अनन्तकायिक नहीं होता ।
कंद - भूमि में जितने कंद उत्पन्न होते हैं, सब अनन्तकाय हैं । ये बत्तीस हैं:
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१. सूरणकंद, २. वज्रकंद, ३. आर्द्रहल्दी, ४. अदरक, ५. हराकचूर, ६. शतावरी, ७. विराली, ८. कुंआरपाठा, ९. थूहर १०. गिलोय, ११. लहसुन, १२. बांस का अङ्कुर, १३. गाजर, १४. लवणक (जिसे जलाकर साजी बनाते हैं), १५. पद्मिनीकंद, १६. गिरिकर्णिका (लता विशेष), १७. किसलय (सभी कोमल पत्ते), १८. कसेरु, १९. थेगकंद व भाजी, २०. हरा मोथा, २१. लवणवृक्ष की छाल, २२. खिलोड़ी (कंद विशेष), २३. अमृतबेल, २४. पालक की भाजी, २५. जिसमें बीज न पड़ा हो ऐसी कोमल इमली, २६. मूला, २७. भूमिस्फोट (छत्राकार), २८. अङ्कुरित धान्य, २९. बथुवे की भाजी (प्रथम उगी हुई नहीं कि काटने के बाद दुबारा उगी हुई), ३०. शूकरबेल (बड़ी बेल), ३१. आलू ३२. पिण्डालू,
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पूर्वोक्त बत्तीस अनन्तकाय आर्यदेश में प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त कई वनस्पतियाँ ऐसी हैं जिनमें अनन्तकाय के शास्त्रोक्त लक्षण घटते हैं, जैसे घोषातकी व करीर के अङ्कुर, अतिकोमल
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