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________________ १०२ मन को विकृत बनाने के कारण ये विकृतियाँ कहलाती हैं । द्वार ४ हैं। ये योगोद्रहन की नीवि में लेना कल्पते हैं। यदि एक ही मालपूर या खाजे से पूरी कड़ाही भर जाय तो पहले पावे के अतिरिक्त सभी पावे निवियाते कहलाते हैं । यदि दूसरा, तीसरा पावा निकालने के बाद तुरन्त कड़ाही में नया घी या तेल डाल दिया हो तो पुनः पूर्ववत् निकालने के बाद ही निवियाता समझना ॥ २२१ ।। गृहस्थ संसृष्ट आगार का विशेष स्वरूप १. गृहस्थ ने अपने लिये दूध-चावल या दही-चावल मिश्रित किये वे 'गृहस्थ संसृष्ट' है। चावल में डाले हुए दूध-दही चार अङ्गुल ऊपर तक पहुँचे तब तक वे निर्विगय हैं, इससे ऊपर पहुँचने पर वे विगय बन जाते हैं । नीवि के पच्चक्खाण में ऐसा खाना नहीं कल्पता है । २. कूर, ठोठिका आदि पर गुड़ादि का रस एक अङ्गुल ऊपर तक हो तो वह वस्तु निर्विगय कहलाती है, इससे अधिक ऊपर हो तो विगय । ३. तेल, घी आदि का भी इसी तरह समझना । ४. शराब और मांस आधा अङ्गुल ऊपर हो वहाँ तक निर्विगय, उससे ऊपर हो तो विगय । ५. गुड़, मांस और मक्खन के आर्द्र आंवले जितने पिण्डों से संसृष्ट ओदन आदि निर्विगय कहलाते हैं। यदि आंवले से बड़ा एक भी टुकड़ा चावल आदि में मिला हो तो वे 'विगय' हैं। आर्द्रामलक का अर्थ है शणवृक्ष की कली ॥। २२२-२२३ ॥ प्रत्याख्यान से सम्बन्धित विशेष बातें बताते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि विगय, निवियाते, अनन्तकाय तथा अभक्ष्य क्रमशः दस, तीस, बत्तीस व बाईस होते हैं। इनका मैं वर्णन करता हूँ, आप २२४ ॥ विगय - १० धर्मोपदेश दिया जाता है, अनुपस्थितों को नहीं । कहा है श्रोता को धर्मोपदेश नहीं देना चाहिये। ऐसा करने वाले का मुँह की तरह कान्ति रहित हो जाता है 1 यहाँ 'शृणुत' क्रिया पद इस बात का द्योतक है कि श्रोता रूप में उपस्थित भव्यात्माओं को ही कितना भी प्रिय क्यों न हो, अनुपस्थित मुँह बुझी हुई आग को फूँक देने वाले के 'वर्णयामि' का अर्थ है कि परोपकारी आचार्य भगवन्तों के द्वारा प्रतिपादित जीवादि तत्त्वों का श्रवण करने से ही भव्यात्माओं में विवेक प्रकट होता है। कहा है कि - यह कल्याणकारी है या पापकारी है, श्रवण से ही भव्यात्मा जानते हैं। जानने के पश्चात् जो कल्याणकारी है उसका आचरण करते हैं । Jain Education International दूध, दही, तेल, मक्खन, घी, गुड़, शहद, मांस, मदिरा व कड़ाई विगय ये दस विगय हैं। इनके पूर्वोक्त पाँच, चार, चार, चार, चार, दो, तीन, तीन, दो और एक भेद हैं ॥ २२५ ॥ For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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