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है तो वहाँ एक आगार 'चोलपट्टागारेणं' अधिक बढ़ जाता है। कारण, गृहस्थ आदि के आने पर सर्वथा नग्न रहना उचित नहीं लगता। कम से कम एक चोलपट्टा तो अवश्य ही पहनना पड़ता है । अत: यह आगार रखना आवश्यक है ताकि पच्चक्खाण भङ्ग न हो ।
१०. निर्विकृतिक- प्रत्याख्यान
मन को विकृत करने वाली अथवा विगति-दुर्गति में ले जाने वाली विकृतियाँ जिसमें से निकल चुकी हों, वह निर्विकृतिक पच्चक्खाण कहलाता है। इसमें आठ या नौ आगार होते हैं । 'अन्नत्थाणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसट्टेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरई ।' 'पडुच्चमक्खिएणं' को छोड़कर शेष आगारों की व्याख्या पूर्ववत् समझना ।
द्वार ४
• पडुच्चमक्खिणं - सर्वथा रूखी नहीं, पर नरम रहे इसलिये अङ्गुली आदि से अति अल्प घी लेकर चुपड़ी हुई रोटी आदि कि जिन्हें खाने में घी का यत्किचित् भी स्वाद न आता हो, वह ‘नीवि' में खाना कल्प्य है । यदि घी आदि की धार देकर रोटी आदि चुपड़ी हो तो नीवि में खाना नहीं कल्पता । नीवि के भोजन के साथ रखी हुई विगय जैसे पिण्डीभूत दही, गुड़ आदि जो कि अलग हो सकती है, वहाँ नीवि में नौ आगार होते हैं । पर जहाँ विग
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जैसे द्रवीभूत घी, गुड़ आदि, अलग हो ही नहीं सकते, वहाँ 'उक्खित्तविवेगेणं' का कोई उपयोग न होने से आठ ही आगार होते हैं ।
प्रश्न –— यहाँ नीवि के ही आगार बताये विगय के नहीं, तो विगय के कितने आगार हैं ?
उत्तर— नीवि और विगय के आगार समान हैं। इसलिये 'विगय' के आगार अलग से नहीं
बताये। जैसे सूत्र में एकासन, पोरिसी व पुरिमड्ड के आगार अलग नहीं बताये वैसे ही यहाँ समझना। .
और भी अनेक प्रकार के पच्चक्खाण हैं । यद्यपि सभी सूत्र में बताना सम्भव नहीं है तथापि अप्रमाद का कारण होने से यथाशक्य अवश्य करने चाहिये ।
• अशनादि का स्वरूप - अशन, पान आदि शब्दों का अर्थ दो तरह से किया गया है (i) व्याकरणसम्मत, (ii) आगमसम्मत ।
(i) व्याकरणसम्मत—‘अशन' अर्थात् जो खाया जाय। 'अश् भोजने' धातु से कर्म में 'ल्युट् ' प्रत्यय होकर 'अशन' शब्द बना है । 'पान' अर्थात् जो पीया जाय । यह भी पूर्ववत् 'ल्युट्' प्रत्यय से बना है। खादिम और स्वादिम का अर्थ है खाने योग्य और स्वाद लेने योग्य । खाद् और स्वाद् धातु से इम् प्रत्यय लगकर खादिम व स्वादिम शब्द बने हैं ।
(ii) आगमसम्मत - अशन
क्षुधा को शीघ्र शान्त करने वाला । दशविध प्राणों का उपकारक ।
पान
खादिम - मुखरूपी आकाश में समा जाने वाला ।
स्वादिम– जो अपने रसादि गुणों का तथा कर्त्ता के संयमादि गुणों का आस्वादन - चर्वण कराये वह स्वादिम है । अथवा आस्वादन करते
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