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________________ प्रवचन-सारोद्धार ९७ ६. असिक्थ-पूर्वोक्त जल छानने के बाद असिक्थ कहलाता है। पूर्वोक्त जल पीने पर भी उपवासादि का भङ्ग नहीं होता। ८. प्रत्याख्यान दिन के अन्त में या भव के अन्त में किया जाने वाला पच्चक्खाण क्रमश: दिवसचरिम व भवचरिम कहलाता है। दिवसचरिम प्रत्याख्यान--इसमें अन्नत्थणा, सहसा., महत्तरा., सव्वसमाहि. ये चार आगार होते हैं। प्रश्न-एकासन आदि पच्चक्खाण से ही काम चल सकता है। कारण, इसमें एक ही समय खाने की छूट है। फिर दिवसचरिम पच्चक्खाण लेने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर-एकासन आदि के पच्चक्खाण आठ आगार वाले हैं तथा 'दिवसचरिम' पच्चक्खाण चार आगार वाले हैं। अत: एकासनादि के पच्चक्खाण का संक्षेप करने के लिये शाम को 'दिवसचरिम' पच्चक्खाण करना आवश्यक है। इससे सिद्ध है कि एकासनादि के पच्चक्खाण दिवस सम्बन्धी ही हैं क्योंकि मुनियों के तो वैसे भी रात्रिभोजन का आजीवन त्याग होता है। गृहस्थ की अपेक्षा से दिवसचरिम 'पच्चक्खाण अहोरात्रि का होता है। क्योंकि दिवस शब्द का प्रयोग 'अहोरात्रि' के पर्यायरूप में भी होता है। जैसे कोई पाँच 'अहोरात्रि' तक घर से बाहर रहा हो तो वह यही कहेगा कि हम पाँच दिन से घर आये हैं। जिन्हें आजीवन रात्रिभोजन का त्याग है, उनके लिये भी रात्रिभोजन विरमण व्रत का स्मारक होने से 'दिवसचरिम' पच्चक्खाण सार्थक है। भवचरिम प्रत्याख्यान भव के अन्त में करने योग्य पच्चक्खाण। इसके भी पूर्वोक्त चार आगार हैं। यदि आवश्यकता न हो तो इस पच्चक्खाण में अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं- ये दो ही आगार पर्याप्त हैं। कारण अनाभोग से या सहसा अंगली, तृण आदि की मुँह में जाने की सम्भावना रहती है। यह पच्चक्खाण आगार रहित भी हो सकता है। यदि थोड़ी सी सावधानी रहे तो पूर्वोक्त दोनों आगारों का परिहार सम्भव हो सकता है। ९. अभिग्रह प्रत्याख्यान विशेष द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव का संकल्प करते हुए प्रत्याख्यान करना अभिग्रह प्रत्याख्यान कहलाता है। जैसे—कटोरी, चम्मच आदि से ही भिक्षा ग्रहण करूँगा...द्रव्य अभिग्रह । अमुक घर से....गली से....गाँव से लूँगा...क्षेत्र अभिग्रह । अमुक समय में भिक्षा ग्रहण करूँगा....काल अभिग्रह । खड़े-खड़े, बैठे-बैठे, गाते-गाते देगा तो ही लूँगा....भाव अभिग्रह । इसके चार या पाँच आगार हैं- दांडा प्रमार्जनादि रूप अभिग्रह में अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं आदि चार आगार हैं। यदि किसी मुनि के नग्न रहने का अभिग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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