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द्वार ४
आने पर भी पच्चक्खाण भङ्ग नहीं होता। आहार के भेद से आयंबिल तीन प्रकार का है-भात, उड़द तथा सत्तू खाकर किया जाता है।
(ii) उक्खित्तविवेगेणं-उत्क्षिप्त == अलग करने योग्य विगय आदि। विवेक = सर्वथा त्याग। आयंबिल के भोजन से अग्राह्य द्रव्य को अलग कर देने पर शेष भोजन आयंबिल में ग्रहण किया जा सकता है। इससे पच्चक्खाण भङ्ग नहीं होता। अग्राह्य द्रव्य से अलग हो सकें वे कण अवश्य अलग कर देने चाहिये। उन्हें जान बूझकर अलग न करे तो पच्चवखाण भङ्ग हो जाता है।
(iii) गिहित्थसंसिडेणं-विगयादि से संसृष्ट पात्र से दिया हुआ अकल्पनीय द्रव्य से मिश्रित भोजन आयंबिल में उपयोग करे तो भी पच्चक्खाण भङ्ग नहीं होता। इसमें अकल्प्य रस अधिक मात्रा में नहीं होना चाहिये।
(iv) अनाभोग (v) सहसाकार (vi) पारिस्थापनिक (vii) महत्तर (viii) सर्वसमाधिप्रत्यय । ये पाँच पूर्ववत् समझना। ७. अभक्तार्थ प्रत्याख्यान
सूर्योदय से जो पच्चक्खाण किया जाता है, वह अभक्तार्थ कहलाता है। यह पच्चक्खाण सूर्योदय से होता है अत: भोजन के बाद नहीं हो सकता। भक्त = भोजन। जिसमें भोजन नहीं होता वह अभक्तार्थ यानि उपवास । इसमें पाँच आगार हैं
(i) अन्नत्थणाभोग (ii) सहसाकार (iii) पारिट्टावणियागार (iv) महत्तरागार (v) सव्वसमाहिवत्तियागार । इनके अर्थ पूर्ववत् समझना।
तिविहार उपवास हो तो पारिष्ठापनिक आगार बोलना चाहिये । चउविहार उपवास हो और गोचरीके साथ पानी भी अधिक हो तो पारिष्ठापनिक आगार बोलना चाहिये। यदि पानी अधिक न हो तो यह आगार नहीं बोलना चाहिये क्योंकि पानी के बिना ‘पारिट्ठावणिया' लेना नहीं कल्पता।
पानक प्रत्याख्यान-छ: आगार । तिविहार प्रत्याख्यान में पानी से सम्बन्धित ये छ: आगार बोले जाते हैं- पोरिसी, पुरिमड्ड, एकासन, एकलठाणा, आयंबिल, उपवास आदि उत्सर्गत: चउविहार ही होते हैं। यदि ये पच्चक्खाण तिविहार करे तो पानी के छ: आगार अवश्य बोलना चाहिये।
१. लेपकृत-अनाज, खजूर, दाख आदि का धोवण जो कि बर्तन को कुछ चिकना बनाता है ऐसा पानी उपवास आदि पच्चक्खाण में ले सकते हैं।
२. अलेपकृत-काञ्जी, छाछ के ऊपर का पानी।
३. अच्छेन–तीन उकाले वाला गरम निर्मल जल, फलादि का धोवण, फूलादि का निर्मल जल व अन्य अचित्त जल।
४. बहुलेन-तिल या तन्दुलादि का धोवण । ५. संसिक्थ-सिक्थ = कण। जिस पानी में पके हुए चावलादि के कण रह गये हों।
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