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________________ प्रवचन-सारोद्धार (v) सागरियाआगारेणं- गृहस्थ के सामने साधु को भोजन करना नहीं कल्पता है। कहा हैं—प्रवचनाद्युपघातसंभवात्-अर्थात् शासन की हीलना की सम्भावना होने से। 'छक्कायदयावंतोऽपि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं। आहारे नीहारे दुगुछिए पिंडगहणे य॥' साधु की अच्छी, बुरी गोचरी देखकर गृहस्थ को दुर्भाव पैदा हो सकता है। अच्छी गोचरी देखकर गृहस्थ सोचे कि अच्छा-अच्छा खाना यही साधु-जीवन है क्या? रूखा-सूखा आहार देखकर संयम लेने का भाव ही उतर जाय। अत: साधु को अपनी गोचरी गृहस्थ को कभी नहीं दिखाना चाहिये। इससे मुनि दुर्लभ-बोधि होता है। एकासणा करते समय यदि कोई गृहस्थ आ जाय और वह जल्दी जाने वाला हो, तब तो मुनि कुछ समय प्रतीक्षा करे, अन्यथा उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाकर एकासणा पूर्ण करे। अगर मुनि लम्बे समय तक वहीं बैठा गृहस्थ के जाने की प्रतीक्षा करता रहे तो स्वाध्याय में बाधा होगी। श्रावकों के लिये सागारिक वह कहलाता है जिसकी नजर लगती हो। ऐसा व्यक्ति सामने आकर बैठ जाय तो एकासन करते हुए उठ जाना चाहिये। इससे पच्चक्खाण भङ्ग नहीं होता। (vi) आउंटणपसारेणं-पीड़ादि के कारण यदि पैर आदि का संकोचन, प्रसारण करना पड़े तो भी प्रत्याख्यान भङ्ग नहीं होता। (vii) गुरुऽन्भुट्ठाणेणं-गुरु या मेहमान (जो सम्मान योग्य हो) के आने पर खड़ा होना आवश्यक है। अत: एकासान करते-करते खड़ा हो जाय तो भी पच्चक्खाण भङ्ग नहीं होता। (viii) पारिट्ठावणियागारेणं- परठने योग्य गोचरी गुरु की आज्ञा से एकासन से उठने के बाद पुन: ग्रहण करे तो भी पच्चक्खाण भङ्ग नहीं होता। परठने में दोष है जबकि वापरने में गुण है। ५. एकस्थान प्रत्याख्यान इसके सात आगार हैं। पूर्वोक्त आगारों में से 'आकुंचन-प्रसारण' का आगार इसमें नहीं होता। भोजन करते समय जिस स्थिति में बैठा हो, अन्त तक उसी स्थिति में बैठे रहना। मात्र जिसमें मुख और हाथ का ही संचालन हो, वह पच्चक्खाण एकस्थान कहलाता है। ६. आचाम्ल प्रत्याख्यान इसमें आठ आगार हैं। जिसमें अवश्रामण (काजी आद) और आम्ल रस का त्याग होता है, वह आचाम्ल प्रत्याख्यान है। (i) लेवालेवेणं-लेप = विगय व काञ्जी आदि के द्वारा लिप्त पात्र । अलेप = हाथ आदि के द्वारा निर्लेप किया हुआ पात्र । अर्थात् पहले जिस पात्र में विगय, काञ्जी आदि रखी हो और बाद में उसे खाली कर निर्लेप कर दिया हो, फिर भी उसमें विगय के कण रह गये हो, ऐसे पात्र में आयंबिल का भोजन डालकर गृहस्थ साधु को देवे तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। भोजन में विगय के अवयव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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