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________________ प्रवचन-सारोद्धार के बाद बचे हुए तप्त घी में दलिया आदि डालकर बनाया हुआ पक्वान्न उत्कृष्ट द्रव्य कहलाता है, विगय नहीं कहलाता, ऐसा किसी का मत है ।। २२६ ।। पेया, दुग्धाटी, दुग्धावलेहिका, दुग्धसाटिका तथा खीर ये पाँच दूध के निवियाते हैं ।। २२७ ॥ खटाई डालकर बनाई हुई दूध की वस्तु दुग्धाटी, द्राक्ष डालकर उबाला हुआ दूध पयसाटी, दूध में चावल का आटा डालकर बनाई हुई राब आदि अवलेहिका है ।। २२८ ।। घोलवड़ा, घोल, श्रीखण्ड, करबा, लवण युक्त मन्थन किया हुआ सांगरी आदि से युक्त अथवा रहित दही निवियाता है ।। २२९ ॥ औषधि डालकर पकाया हुआ घी, घी की किट्टी, घी में पकी हुई औषध के ऊपर की तरी, पूरी आदि तलने के बाद बचा हुआ घी तथा विस्यंदन-ये पाँच घी के निवियाते हैं ।। २३० ॥ तेल की मलाई, तिलकुट्टी, पूड़ी आदि तलने के बाद बचा हुआ तेल, औषध पकाने के बाद उसके ऊपर से उतारा हुआ तेल, लाक्षा आदि डालकर पकाया हुआ तेल-ये पाँच तेल के निवियाते हैं।। २३१॥ । आधा उकाला हुआ गन्ने का रस, गुड़ का पानी, मिश्री, गुड़ की चासनी और शक्कर-ये पाँच गुड़ के निवियाते हैं।। २३२॥ एक पावा निकालने के बाद के पावे, तीन पावे निकालने के बाद के पावे, गुड़धानी आदि जल लापसी तथा तवे पर घी या तेल का पोता देकर बनाई हुई पूड़ी (टिकड़ा) आदि-ये पाँच पक्वान्न विगय के निवियाते हैं ।। २३३-२३४ ।। आवश्यक चूर्णि में वर्णित निवियातों की चर्चा यहाँ सामान्य रूप से की गई है। यह चर्चा योग्य बुद्धिमान आत्माओं को ही कहने योग्य है तथा आगाढ़ कारण हो तो ही निवियातों का सेवन करने योग्य है।। २३५ ।। अनन्तकाय—सभी जाति के कंद; जैसे सूरणकंद, वज्रकंद, कच्ची हल्दी, अदरक, नरकचूर, सतावरी, विरालिका, कुंआरपाठा, थूहर, गिलोय, लहसुन, बंसकारेला, गाजर, लवणक, भिस, गिरिकर्णिका, किसलयपत्र, खरिंसुका, थेगी, हरा मोत्था, लवण वृक्ष की छाल, खल्लुडका, अमृतवेल, मूला, भूमिरूह, विरूढ, बथुआ, शूकरबेल, पालक, कोमल इमली, आलू, पिंडालू आदि अनन्तकाय हैं। अन्य भी अनेक प्रकार के अनन्तकाय हैं जिन्हें सिद्धान्त में कथित लक्षण के अनुसार जानना चाहिये। जैसे घोषातकी, करीर का अङ्कर, जिसमें गुठली न पड़ी हो ऐसे आम-इमली आदि के फल, वरुण, वट नीम आदि वृक्षों के अङ्कर अनन्तकाय हैं।। २३६-२४१ ।। जिस वनस्पति की नसें, संधि और पर्व गुप्त होते हैं, तोड़ने पर जिसके समान भाग होते हैं, तोड़ने पर जिसमें तन्तु न निकलते हों, जो काटने पर भी पुन: उत्पन्न हो जाती हों, ऐसी वनस्पति अनन्तकाय (साधारण) है और इससे विपरीत लक्षण युक्त वनस्पति प्रत्येक कहलाती है ।। २४२ ।। जिसे तोड़ने पर कुंभार के चक्र की तरह समान भाग होते हों, जिस वनस्पति का पर्व (गांठ) तोड़ने पर चूर्ण उड़ता हो, उसे अनन्तकाय समझना चाहिये ॥ २४३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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