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प्रवचन-सारोद्धार
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बोलकर खड़ा होकर करेमि-भंते आदि बोले, चारित्र विशुद्धि निमित्त कायोत्सर्ग (एक लोगस्स), प्रकट लोगस्स, दर्शन विशुद्धि निमित्त कायोत्सर्ग (एक लोगस्स), प्रकट पुक्खरवरदी; ज्ञानशुद्धि निमित्त कायोत्सर्ग (इस कायोत्सर्ग में रात्रि सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन), प्रकट सिद्धस्तव, बैठकर मुखवस्त्रिका पडिलेहण, वांदणा, अतिचारों की आलोचना, बैठकर नमस्कारपूर्वक सामायिकादि सूत्र (साधु पगामसज्झाय और श्रावक वंदित्तु सूत्र) बोले, वांदणा, खामणा, वांदणा, आयरियउवज्झाय (गाथात्रय), करेमि-भंते, इच्छामि-ठामि, तत्पश्चात् छमासी तप चिंतन निमित्त कायोत्सर्ग करे....सर्वप्रथम संकल्प करे----'जिससे संयम के अनुष्ठानों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे, मैं ऐसा तप स्वीकार करता हूँ।' फिर चिंतन करे कि भगवान महावीर के शासन में उत्कृष्ट तप गणधरों ने छ: महीने का बताया है, हे आत्मन् ! क्या तूं ऐसा तप करने में समर्थ है? यदि नहीं, तो एक दिन कम छ: महीने का तप करने में समर्थ है ? दो दिन कम छ: महीने का तप करने में समर्थ है? इस प्रकार कम करते-करते पाँच महीने....चार महीने....तीन महीने...दो महीने....एक महीने तक की पृच्छा करे, फिर एक दिन कम एक महीने....दो दिन कम एक महीने, इस प्रकार कम करते-करते तेरह दिन कम एक महीने की पृच्छा करे। उसके बाद चौंतीस भक्त....बत्तीस भक्त...तीस भक्त....इस प्रकार दो-दो कम करते हुए चतुर्थ भक्त तक पृच्छा करे । यदि इतनी भी शक्ति न हो तो आयंबिल, नीवि, एकासणा यावत नवकारसी तक की पच्छा करे। इनमें से जो भी तप करना हो, उसका मन में संकल्प करके कायोत्सर्ग पारे । प्रकट लोगस्स कहे, बैठकर मखवस्त्रिका पडिलेहण, वांदणा देकर संकल्प के अनुसार प्रत्याख्यान करे। फिर मंद स्वर से तीन स्तुति बोले (जोर से बोलने से गिरोली आदि हिंसक जानवर जगकर हिंसा करेंगे), चैत्यवन्दन करे।
प्रश्न—दैवसिक प्रतिक्रमण में पहले कायोत्सर्ग में अतिचारों का चिंतन होता है फिर पिछले तीन काउस्सग्ग क्रमश: चारित्रशुद्धि, दर्शनशुद्धि एवं ज्ञानशुद्धि के लिये किये जाते हैं किन्तु प्राभातिक प्रतिक्रमण में विपरीत किया जाता है। ऐसा क्यों?
उत्तर—प्राभातिक प्रतिक्रमण में पहले चारित्रशुद्धि और दर्शनशुद्धि हेतु कायोत्सर्ग करने के बाद ही अतिचारों के चिन्तन हेतु कायोत्सर्ग करना चाहिये । कारण अतिचारों के चिन्तन में सतर्कता एवं सजगता अति आवश्यक है। प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में तुरन्त नींद से जगने के कारण आँखों में सहज नींद, आलस व प्रमाद की सम्भावना रहती है। ऐसी स्थिति में अतिचारों का अच्छी तरह स्मरण नहीं हो सकता तथा नींद आने से परस्पर साधुओं का संघट्टा होने की भी सम्भावना रहती है। अत: सवेरे अतिचारों के चिन्तन का कायोत्सर्ग बाद में ही करना चाहिये। इससे बाद में होने वाली वन्दनादि क्रिया भी सजगता से होती है। आगम में भी कहा है कि
निद्दामत्तो न सरइ अइयारे कायघट्टणऽन्नोन्ने ।
किइअकरणदोसा वा गोसाई तिन्नि उस्सग्गा॥ ॥१७७-१८० ॥ पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि
चतुर्दशी के दिन दैवसिक प्रतिक्रमण, 'तिविहेण पडिक्कतो वंदामि जिणे चउवीसं' तक करने के बाद 'देवसियं आलोइयं पडिक्कंतं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खिय मुहपत्ति पडिलेहुं ? इस प्रकार
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