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________________ ७८ द्वार ३ 1080miccc अत: त्रिविध प्रतिक्रमण कहने में कोई दोष नहीं है। पञ्चविध प्रतिक्रमण १. दैवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक ५. सांवत्सरिक। भरत, ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम जिन के समय में ये पाँचों ही प्रतिक्रमण नियत हैं। महाविदेह में तथा भरत, ऐरवत में २२ तीर्थंकरों के समय में ये प्रतिक्रमण अनियत हैं। अर्थात् दोष लगे तो ही प्रतिक्रमण होता है अन्यथा नहीं। कहा है कि 'प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय नियत प्रतिक्रमण करना यही धर्म है, जबकि मध्य के २२ तीर्थंकरों के समय में दोष लगा हो तो प्रतिक्रमण करना अन्यथा नहीं, यही धर्म है।' दैवसिक-प्रतिक्रमण-विधि ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, इन पञ्चविध आचारों की शुद्धि के लिये साधु और श्रावक को प्रतिक्रमण करना चाहिये। गुरु हो तो प्रतिक्रमण गुरु के साथ में करें अन्यथा अकेले ही करें। त्रस, स्थावर जीवों से रहित, प्रतिलेखित, प्रमार्जित भूमि में बैठकर इरियावहिया, चैत्यवन्दन करके आचार्य आदि को खमासमण देते हुए भूमि-निवेशित-सिर से समस्त दैवसिक अतिचारों का ‘मिच्छामि दुक्कडं' (सवस्स वि देवसिअं) करें। तत्पश्चात् करेमि भंते, इच्छामि-ठामि, दैवसिक-अतिचारों के चिंतन-हेतु काउस्सग्ग करे (गोचरी आदि के लिये भ्रमण करने वाले साधु एक बार अतिचारों का चिंतन करें, किन्तु गुरु दो बार चिंतन करे क्योंकि भ्रमणशील होने से साधुओं के अधिक अतिचार लगने की सम्भावना है, अत: साधुओं को चिंतन करने में समय लगता है) गुरु अल्प भ्रमणशील होने से उनके अल्प अतिचार लगते हैं, प्रकट लोगस्स कहे। बैठकर मुहपत्ति पडिलेहण, वन्दन, अतिचारों की आलोचना, बैठकर (नमस्कारपूर्वक) सामायिक सूत्र, साधु श्रमणसूत्र (पगामसज्झाय) बोले और श्रावक अपना सूत्र (वन्दित्तुसूत्र) बोले, वन्दन, खामणा (विधि-गुरु से लेकर अनुक्रम से सभी बड़ों को खमावे। परम्परा यह है कि यदि पाँच का गण हो तो तीन तक खमावे, पाँच से कम का गण हो तो मात्र गुरु को ही खमावे) वान्दणा (यह वन्दन आचार्य आदि का आश्रय करने के लिये किया जाता है अत: यह वन्दन अल्लियावण-वन्दन कहलाता है) फिर चारित्र विशुद्धि निमित्त काउस्सग्ग (दो लोगस्स), दर्शन विशुद्धि निमित्त कायोत्सर्ग (एक लोगस्स), ज्ञान-विशुद्धि निमित्त कायोत्सर्ग (एक लोगस्स), श्रुत-समृद्धि निमित्त श्रुतदेवता का काउस्सग्ग (एक नवकार) प्रगट स्तुति, सर्व विघ्न नाश हेतु क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग (एक नवकार) प्रकट स्तुति, नमस्कारपूर्वक बैठकर मुहपत्ति पडिलेहण, वांदणा (मङ्गल निमित्त), तत्पश्चात् ‘इच्छामो अणुसटुिं' बोलकर तीन स्तुति बोलें, पहली स्तुति गुरु बोले, बाद में सभी लोग समवेत स्वर से तीन स्तुति बोले। तत्पश्चात् शक्रस्तव, स्तोत्र (स्तवन) दैवसिक अतिचारों की विशुद्धि के लिये चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करे। इस प्रकार दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि सम्पूर्ण होती है ॥ १७५-१७६ ॥ प्राभातिक-प्रतिक्रमण-विधि सर्वप्रथम भूमिनिवेशित सिर से रात्रि सम्बन्धि अतिचारों का मिच्छामि दुक्कडं करें। नमुत्थुणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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