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द्वार ३
छम्मासा एगदिणाइ हाणि जा पोरिसि नमो वा ॥ १८० ॥ मुहपोत्तीवंदणयं संबुद्धाखामणं तहालोए । वंदण पत्तेयं खामणाणि वंदणयसुत्तं च ॥ १८१ ॥ सुत्तं अब्भुट्ठाणं उस्सग्गो पुत्तिवंदणं तह य। पज्जते खामणयं एस विही पक्खिपडिक्कमणे ॥ १८२ ॥ चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ता य हुंति उज्जोया। देसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे य वरिसे य॥ १८३ ॥ पणवीस अद्धतेरस सलोग पन्नतरी य बोद्धव्वा। सयमेगं पणवीस बे बावण्णा य वरिसंमि ॥ १८४ ॥ साय सयं गोसद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खंमि। पंच य चाउम्मासे वरिसे अट्ठोत्तरसहस्सा ॥ १८५ ॥ देवसिय-चाउमासिय-संवच्छरिएसु पडिक्कमण-मज्झे । मुणिणो खामिज्जति तिन्नि तहा पंच सत्त कमा॥ १८६ ॥
-गाथार्थदैवसिक प्रतिक्रमण विधि-चैत्यवन्दन, कायोत्सर्ग, मुहपत्ति-प्रतिलेखन, वन्दन, आलोचना, प्रतिक्रमणसूत्र वन्दन, क्षमापना वन्दन, चारित्र, दर्शन एवं ज्ञानविशुद्धि निमित्त क्रमश: कायोत्सर्ग, श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग, मुहपत्ति-प्रतिलेखन, स्तुति-त्रिक, शक्रस्तव और दिवस सम्बन्धी अतिचारों की शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करना यह दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि है ।। १७५-१७६ ॥
रात्रिक प्रतिक्रमण विधि—रात्रि सम्बन्धी अतिचारों का 'मिच्छा मि दुक्कडं' देकर णमुत्थुणं बोलना, तीन कायोत्सर्ग करना, मुहपत्ति की प्रतिलेखना करके वन्दन देना, आलोचना करना, प्रतिक्रमण सूत्र बोलकर वन्दन देकर क्षमापना करना। पुन: वन्दन देकर 'आयरिय उवज्झाए' इत्यादि तीन गाथा बोलना। तत्पश्चात् छमासी तपनिमित्त कायोत्सर्ग करना। फिर मुहपत्ति की प्रतिलेखना, वन्दन, प्रत्याख्यान, स्तुति-त्रिक एवं चैत्यवन्दन करना रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि है।
प्रथम कायोत्सर्ग चारित्र शुद्धि के लिये, द्वितीय कायोत्सर्ग दर्शन शुद्धि के लिये एवं तृतीय कायोत्सर्ग श्रुतज्ञान की शुद्धि के लिये है। तृतीय कायोत्सर्ग में रात्रि सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करे। अन्तिम कायोत्सर्ग में 'मैं कौन सा तप कर सकता हूँ?' इसका चिन्तन करे। एक दिन न्यून छ: महीने के तप से लेकर यावत् पोरसी, नवकारसी तक तप करने का चिन्तन करे। ॥१७७--१८०॥
पाक्षिकादि प्रतिक्रमण विधि-पाक्षिक मुहपत्ति पडिलेहण करके वन्दन देना, संबुद्धा खामणा
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