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________________ ७४ द्वार २ - ४. रजोहरण स्पर्श नहीं करना, मस्तक भी स्पर्श नहीं करना। -- इन चारों भांगों में से प्रथम भांगा शुद्ध शेष तीनों अशुद्ध हैं। २८. उण - अक्षर, वाक्य, पद न्यूनाधिक बोलते हुए वन्दन करना अथवा उत्सुकतावश जल्दी-जल्दी वन्दन समाप्त करना । 'अवनमन' आदि आवश्यक न्यून करना, वह आवश्यक 'न्यून-वन्दन' कहलाता है। २९. उत्तरचूलिय - वन्दन करने के बाद ‘मत्थएण-वंदामि' जोर से बोलना, यह 'उत्तरचूल वन्दन' कहलाता है। ३०. मूय -- वन्दन करते समय सूत्र, आवर्तों का स्पष्ट उच्चारण नहीं करना, किन्तु गूंगे की तरह मन में बोलते हुए वन्दन करना, 'मूक-वन्दन' कहलाता है। ३१. ढकुर -- वन्दन करते समय सूत्र जोर-जोर से बोलना, यह ‘तीव्र-स्वर वन्दन' कहलाता है। ३२. चुडलिय - रजोहरण को अलात (जलते हुए काष्ठ) की तरह गोल घुमाते हुए वन्दन करना ।। १५०-१७३ ।। १५ आठ कारण (वन्दन करने के) -- १. प्रतिक्रमण के समय वन्दन करना । (प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, अपराध- स्थानेभ्यो गुणस्थानेषु निवर्तनम्, विपरीत दिशा में लौटना अर्थात् पाप स्थानों से गुणस्थानों की ओर लौटना प्रतिक्रमण - २. वाचना आदि लेते समय वन्दन करना। ३. आयंबिल का विसर्जन कर विगय के परिभोग के लिये कायोत्सर्ग करने हेतु वन्दन करना। - ४. अपराध की (गुरु का अविनय हुआ हो तो) क्षमा माँगने से पूर्व वन्दन करना। - ५. प्राघूर्णक मुनि के आने पर यदि प्राघूर्णक बड़ा हो तो स्थित लघु साधु द्वारा उन्हें वन्दन करना और प्राघूर्णक (पाहुणे) मुनि छोटे हों तो उनके द्वारा स्थित बड़े मुनियों को वन्दन करना। (वन्दन करने वाला मुनि आचार्य को पूछकर वन्दन करे)। - अत्र चायं विधि- आने वाले मुनि (प्राघूर्णक = पाहुने) दो तरह के होते हैं-- १. सांभोगिक और २. असांभोगिक - समान समाचारी-क्रियानुष्ठान होने के कारण जिनके साथ खान-पान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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